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प्रवचन-सारोद्धार
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यह मरण कर्मभूमि में उत्पन्न अयुगलिक तिर्यंच और मनुष्य को ही होता है, क्योंकि वे ही पुन: उस भव का आयुष्य बाँध सकते हैं। देवता, नारकी और युगलिक नर-तिर्यंच मरकर पुन: उसी भव में नहीं जा सकते अत: उनका तद्भव मरण नहीं होता।
'गाथागत 'तु' शब्द इस बात का ज्ञापक है कि संख्यातावर्ष की आयु वाले तिर्यंच व मनुष्यों का ही तद्भवमरण होता है। असंख्यात वर्ष की आयु वाले युगलिक होने से अकर्मभूमि के जीवों की तरह देव में ही उत्पन्न होते हैं। संख्याता वर्षायु वाले सभी का तद्भव मरण नहीं होता पर जिन्होंने तद्भव का आयुष्य बाँधा हो, उन्हीं का होता है ॥१०१२ ।।
८. बाल-मरण बाल का अर्थ है विरतिरहित. अत: विरतिरहित मिथ्यात्वी या समकिती का मरण । ९. पंडित-मरण-सर्वविरति-संयमी का मरण । १०. बाल-पंडितमरण देशविरति श्रावकों का मरण ।।१०१४ ॥
११. छद्मस्थ-मरण-ज्ञानावरणादि कर्मों से युक्त मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मतिज्ञानी श्रमणों का मरण । यहाँ मन:पर्यवज्ञान का नाम प्रथम इसलिये दिया गया कि वह ज्ञान मति आदि अन्य छाद्यस्थिक ज्ञानों की अपेक्षा अधिक विशुद्ध है तथा वह संयमियों को ही होता है। अवधि आदि के विषय में इसी प्रकार समझना चाहिये।
१२. केवली-मरण-केवलज्ञानी का मरण। समस्त कर्मपुद्गलों के क्षय से जो निर्वाण होता है ।।१०१५ ॥
१३. वैहायस-मरण वृक्ष की शाखा से लटक कर, वृक्ष या पर्वत से छलांग लगाकर आत्म-हत्या करना। गिरना, लटकना आदि क्रिया आकाश से सम्बन्धित होने से इस मरण को वैहायस-मरण कहते हैं। 'व्योमनि भवं = वैहायसं ।'
१४. गृध्रपृष्ठ-मरण—गीध, शृगाल इत्यादि हिंसक पशु-पक्षियों का भक्ष्य बनकर मृत्यु का वरण करना। इसके दो भेद हैं
(i) अपने पीठ, पेट इत्यादि अवयवों को अलता इत्यादि के रस से रक्त, मांस की तरह लाल रंगकर जान-बूझकर हिंसक पशु-पक्षियों का भक्ष्य बनना ।
(ii) शरीर को खाने के लिये आये हुए हिंसक प्राणियों का प्रतिरोध न करना अथवा हिंसक प्राणियों के भक्ष्यरूप हाथी, ऊँट इत्यादि के कलेवर में प्रवेश करके स्वयं को भक्ष्य बनाना।
प्रश्न-वैहायस और गृधपृष्ठ दोनों ही मरण आत्मघात रूप हैं तो इन्हें अलग क्यों बताया?
उत्तर—यद्यपि दोनों आत्मघातरूप हैं फिर भी साहस की दृष्टि से इनमें अन्तर है। गृधपृष्ठ मरण महाशक्तिशाली व्यक्ति स्वीकार कर सकता है, जबकि वैहायस मरण में इतने साहस की अपेक्षा नहीं रहती। यह भेद बताने के लिये दोनों को अलग से बताया।
प्रश्न आगम में कहा है कि जिनाज्ञा से भावित आत्मा के लिये स्व-पर का कोई भेद नहीं होता। अत: वह स्व और पर दोनों के सुख-दुःख को समान भाव से ग्रहण करता है। जैसे वह दूसरों
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