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द्वार १३८
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बात राजा को बताई। राजा प्रसन्न हो गया। दूसरे दिन प्रभात में परिवाजिका ने वनमाला को राजा के महल में पहुंचा दिया। राजा ने उसे अनुराग वश अपने अन्त:पुर में रख लिया और उसके साथ अनेक विध भोग भोगने लगा।
इधर वीरक घर में वनमाला को न पाकर हा प्रिये ! वनमाले ! तुम कहाँ गई? इस प्रकार विलाप करता हुआ पागल की तरह गली, चौराहों पर घूमने लगा। एक दिन वह इसी अवस्था में राजा के महल के पास पहुँच गया। राजा और वनमाला ने हा वनमाले ! हा वनमाले ! ऐसा प्रलाप करते हुए वीरक को देखा। उसकी वह दशा देखकर राजा को बड़ी आत्मग्लानि हुई कि हमने उभय लोक-विरुद्ध अत्यन्त निन्दनीय कर्म किया है। इसके फलस्वरूप हम मर कर कहाँ जायेंगे? इस प्रकार आत्मनिन्दा करते हए राजा और वनमाला की बिजली गिरने से सहसा मृत्यु हो गई। शुभध्यान से मरकर परस्पर स्नेहवश वे दोनों हरिवर्ष नामक क्षेत्र में युगल रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ उनका हरि-हरिणी नाम हुआ। कल्पवृक्ष से अपनी इच्छापूर्ति करते हुए वे सुखपूर्वक काल-निर्गमन करने लगे।
वीरक भी उन दोनों की मृत्यु के समाचार सुनकर स्वस्थ बन गया। अन्त में अज्ञानतापूर्वक मरकर सौधर्म देवलोक में किल्विषी देव बना। अवधिज्ञान से अपने वैरी हरि-हरिणी को देखकर उसे बड़ा रोष पैदा हुआ। उसने सोचा-ये मेरे वैरी यहाँ से मरकर क्षेत्र-स्वभाव से निश्चित रूप से देव बनेंगे। अत: इन्हें ऐसे स्थान पर रखू कि वहाँ से मरने पर इनकी अवश्य दुर्गति हो और उसने देवशक्ति से कल्पवृक्ष सहित उन्हें भरतक्षेत्र की चम्पानगरी में ले जाकर छोड़ दिया।
उस नगरी का राजा चन्द्रकीर्ति नि:सन्तान मर गया था, अत: प्रजाजन राजा बनने योग्य पुरुषों की खोज कर रहे थे। इतने में उस देव ने अपनी शक्ति से सभी को आश्चर्यमुग्ध करते हुए आकाशवाणी की कि हे राज्यचिन्तकों ! आपके पुण्य से प्रेरित होकर राजयोग्य हरि-हरिणी का यह जोड़ा हरिवर्ष क्षेत्र से मैं लाया हूँ। इनके आहार के कल्पवृक्ष भी साथ हैं। जब ये भोजन माँगे तो कल्पवृक्ष के फलों को माँस से मिश्रित कर इन्हें खिलायें, मदिरा पिलायें। लोगों ने भी देवशक्ति से विस्मित होकर ‘हरि' को राजा बना दिया। देवता ने अपनी शक्ति से उनकी आयु व शरीर प्रमाण अल्प कर दिया। राजा हरि ने भी समुद्र पर्यन्त पृथ्वी को जीतकर चिरकाल तक राज्य का पालन किया। उसी के नाम से हरिवंश कुल उत्पन्न हुआ। यह घटना भी अभूतपूर्व होने से आश्चर्यरूप है।
८. चमरेन्द्र का उत्पात-चमरेन्द्र (भवनपति निकाय का इन्द्र) का ऊपर देवलोक में जाकर उपद्रव करना आश्चर्यरूप है। ऐसा कभी नहीं होता। घटना इस प्रकार है-विभेल नामक उपनगर में पूरण नाम का एक धनाढ्य गृहस्थ था। एकदा रात्रि में उसे विचार उत्पन्न हुआ कि मुझे जो संपत्ति व यश-कीर्ति मिली है वह सब पूर्वकृत तपाराधन का ही परिणाम है। अत: आगामी भव में विशिष्ट फलप्राप्ति के लिये इस भव में मुझे गृहवास का त्याग कर दुष्कर तप करना चाहिए। ऐसा सोचकर पूरण सेठ ने प्रात:काल अपने सभी स्वजनों को पूछकर पुत्र को अपने पद पर प्रतिष्ठित कर तापसी दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा दिन से लेकर मृत्यु पर्यन्त बेले-बेले पारणा किया। पारणे के दिन चार कोने वाले लकड़ी के पात्र में मध्याह्न बेला में घर-घर भ्रमण कर भिक्षा ग्रहण करता था। प्रथम, द्वितीय व तृतीय
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