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द्वार १४८
समयमा
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२. भाव आयतन-रत्नत्रय के धारक साध्वादि की पर्युपासना करना।
(४) स्थिरता-स्वपर को धर्म में स्थिर करना। अन्य धर्मावलम्बियों के आडम्बर को देख कर भी विचलित न होना।
(५) भक्ति-संघ की भक्ति, विनय, वैयावच्च करना ।
ये गुण सम्यक्त्व के दीपक हैं। इनसे सम्यक्त्व की शोभा बढ़ती है। अत: ये सम्यक्त्व के भूषण हैं ॥९३५ ॥ ५. लक्षण
(१) शम–अपराधी पर भी क्रोध न करना। शम दो तरह से होता है- (१) कषाय के कटुपरिणाम का ज्ञान होने से (२) स्वभावत: ही कषाय पैदा न होने से।
(२) संवेग सतत मोक्ष की अभिलाषा । सम्यक्त्वी जीव मनुष्य, देव आदि के सुखों को दुःख के अनुसंगी होने से दुःखरूप ही मानता है। मोक्ष सुख को ही वस्तुत: सुख मानता है।
(३) निर्वेद- संसार से वैराग्य होना (नरक, तिर्यंच आदि सांसारिक दुःखों से मन में घृणा पैदा होना)। समकिती आत्मा, संसार रूपी कारागृह में कर्मजन्य भयंकर कदर्थनाओं का प्रतीकार करने में अशक्त होने से संसार से उद्विग्न बन जाता है।
अन्यमते-भववैराग्य को संवेग और मोक्षाभिलाषा को निर्वेद कहते हैं।
(४) अनुकम्पा-दुःखीजनों के दुःख को बिना किसी पक्षपात के दूर करने की भावना (पक्षपात पूर्वक तो सिंह भी अपने पुत्रादि पर अनुकम्पा करते हैं।)
द्रव्यत: अनुकम्पा–शक्ति हो तो दुःख का प्रतीकार करना । भावत: अनुकम्पा–दयार्द्र हृदय से दुःखी के दुःख का निवारण करना । (५) आस्तिक्य—'अस्तीति मतिरस्येत्यास्तिक: तस्य भाव: कर्म वा आस्तिक्य: ।' अन्यधर्मतत्त्वों को जानते हुए भी वही सत्य और निशंक है जो जिनेश्वर ने कहा है, ऐसी श्रद्धा
रखना।
इन पाँचों से सम्यक्त्व का अस्तित्व जाना जाता है ॥९३६ ॥ ६ यतना-सम्यक्त्व की रक्षा के लिये ६ प्रकार का उपयोग रखना चाहिये।
१-२ अन्यदर्शनी–परिव्राजक, भिक्षु, बौद्ध, साधु । मिथ्यात्वीदेव-शंकर, विष्णु, बुद्ध आदि।
स्वदेव-दिगम्बर आदि अन्यधर्मियों के द्वारा स्वीकृत जिनप्रतिमा तथा बौद्ध आदि मिथ्यात्वियों के द्वारा स्वीकृत ‘महाकाल'आदि को वन्दन-नमस्कार नहीं करना। ऐसा करने से उनके भक्तों का मिथ्यात्व दृढ़ होता है।
वन्दन = सिर झुकाकर नमस्कार करना। नमन = स्तुति पूर्वक प्रणाम करना।
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