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द्वार १४९
उत्तर-कारण में कार्य का उपचार है, यद्यपि दीपक सम्यक्त्व वास्तव में मिथ्यादृष्टि है, किंतु दूसरों के सम्यक्त्व का कारण होने से सम्यक्त्व कहलाता है। जैसे शास्त्र का वचन है कि 'घृतमायु' अर्थात् घृत-आयु है। वास्तव में घी आयुष्य नहीं है, किंतु आयुष्य वृद्धि का कारण हैं और कारण में कार्य के उपचार से ‘घी आयु है' ऐसा कहा जाता है ॥९४६ ॥
चार प्रकार-क्षायिकादि तीन + सास्वादन एक = चार ।
अनंतानुबंधी कषाय के उदय से औपशमिक सम्यक्त्व का नाश होने के बाद जब तक जीव मिथ्यात्वी नहीं बनता उसकी मध्य की स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व है अर्थात् जिसमें सम्यक्त्व का स्वाद है वह सास्वादन है।
अन्तरकरण में वर्तमान कोई जीव अनंतानुबंधी-कषाय के उदय से मिथ्यात्वाभिमुख होता है, किंतु जब तक वह मिथ्यात्व में नहीं पहुँच जाता, वहाँ तक वह सास्वादन गुणस्थान में रहता है। उसका काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छ: आवलिका है। तत्पश्चात् जीव निश्चित मिथ्यादृष्टि बन जाता है ॥९४७ ॥
पाँच प्रकार-पूर्वोक्त चार प्रकार + वेदक सम्यक्त्व = पाँच।।
वेदक सम्यक्त्व-सम्यक्त्व के पुद्गलों का वेदन-अनुभव करने वाला जीव वेदक है और उससे अभिन्न होने से सम्यक्त्व भी वेदक है। यह सम्यक्त्व, सम्यक्त्वपुंज के अंतिम दलिक का अनुभव करते समय होता है। अथवा 'वेद्यते इति वेदकम्' अर्थात् जिसका वेदन-अनुभव किया जाये वह वेदक सम्यक्त्व है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार सम्यक्त्व मोहनीय के पुद्गल 'वेदक' कहलाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि
क्षपक श्रेणि में अनन्तानुबंधी चार कषाय, मिथ्यात्वपुंज, मिश्रपुंज तथा उदीरणा द्वारा सम्यक्त्वपुंज का क्षय करता हुआ आत्मा उदीरणा पूर्ण होने के बाद जब सम्यक्त्व-पुंज के अंतिम दलिक का अनुभव करता है, उस समय के उसके परिणाम 'वेदक' सम्यक्त्व है।
प्रश्न –क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व में क्या अंतर है, क्योंकि सम्यक्त्व-पुंज के पुद्गलों का अनुभव जीव दोनों में करता है?
उत्तर- वेदक सम्यक्त्व में जीव उदित पुद्गलों का ही अनुभव करता है, जबकि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में उदित, अनुदित दोनों का अनुभव करता है, यह अन्तर है।
वस्तुत: वेदक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व दोनों एक से ही हैं, क्योंकि वेदक सम्यक्त्व में भी मिथ्यात्व के अचरम पुद्गलों का भोग द्वारा क्षय होता है तथा चरम पुद्गलों के मिथ्या स्वभाव का नाश रूप उपशम होता है ||९४८ ।।
औपशमिकादि पाँच सम्यक्त्व निसर्गजन्य और निमित्तजन्य के भेद से ५ x २ = १० प्रकार के हैं। अथवा प्रज्ञापनोपांग के अनुसार सम्यक्त्व के निम्न दस प्रकार हैं ॥९४९-९५० ।।
१. निसर्गरुचि-जिनेश्वर भगवान के द्वारा प्ररूपित जीवादि तत्त्वों पर जातिस्मरणज्ञान या सहज बुद्धि से श्रद्धा करना एवमेवैतत् जीवादि यथा जिनैदृष्टं नान्यथेति । जीवादि पदार्थों का स्वरूप जैसा जिनेश्वर परमात्मा ने देखा है, वास्तव में वैसा ही है, इस प्रकार दृढ़ श्रद्धा रखना ॥९५१ ।।
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