________________
प्रवचन-सारोद्धार
१०१
२. उपदेशरुचि- गुरु आदि के तथा तीर्थंकरों के उपदेश से जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा करना। गुरु आदि छद्मस्थों का नाम तीर्थंकर के नाम से प्रथम ग्रहण करना इस बात का सूचक है कि तीर्थंकर भी पहिले तो छद्मस्थ ही होते हैं । अथवा तीर्थंकर की अपेक्षा छद्मस्थ-उपदेशक अधिक मात्रा में हैं ।।९५२ ॥
३. आज्ञारुचि-मंदकषाय वाले आत्मा का कदाग्रह के अभाव में जिनाज्ञा के अनुसार जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा करना। राग, द्वेष, मोह व अज्ञान न्यून हो जाने पर आत्मा कदाग्रही नहीं रहता। इससे माषतुषादि की तरह तीर्थंकर परमात्मा की आज्ञा में उसकी स्वत: रुचि हो जाती है।
वृत्तिकार- 'आज्ञारुचि' का अर्थ आज्ञा में रुचि ऐसा करते हैं। ग्रन्थकार—आज्ञा द्वारा रुचि ‘आज्ञा रुचि' ऐसा करते हैं ॥९५३ ॥
४. सूत्र-रुचि- गोविन्दाचार्य की तरह अंग प्रविष्ट या अंग बाह्य सूत्रों का अध्ययन करने से प्राप्त सम्यक्त्व । सूत्र-रुचि आत्मा जैसे-जैसे पढ़ता है, वैसे वैसे प्रसन्न-प्रसन्नतर अध्यवसायी बनता जाता है ॥९५४ ॥
५. बीज-रुचि जीव आदि एक पद के ज्ञान से अनेक पदों के प्रति रुचि जगना। जिस प्रकार एक तैल का बिन्दु समूचे जल पर फैल जाता है, वैसे किसी एक तत्त्व में रुचि पैदा होने से तथाविध क्षयोपशम के द्वारा अनेक तत्त्वों में स्वत: रुचि पैदा होना। जैसे एक बीज अनेक बीजों को पैदा करता है, वैसे एक विषय की रुचि अनेक विषयों में रुचि पैदा करती है ।।९५५ ॥
६. अधिगमरुचि-श्रुतज्ञान का सम्यक् परिशीलन करने से जो रुचि पैदा होती है वह अधिगमरुचि सम्यक्त्व है। श्रुतज्ञान से यहाँ आचारांग आदि ग्यारह अंग, उत्तराध्ययन, नन्दी आदि एवं प्रकीर्णक तथा दृष्टिवाद संस्कारसूत्र का ग्रहण किया जाता है । यद्यपि दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत है तथापि उसका पृथक् ग्रहण उसकी प्रधानता का सूचक है। 'च' शब्द औपपातिक आदि उपांगों का संग्राहक है ॥९५६ ॥
७. विस्ताररुचि- धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य व उनके सभी पर्यायों को यथायोग्य प्रमाण के द्वारा जानना तथा सभी भावों को यथायोग्य नयों के द्वारा जानना विस्ताररुचि सम्यक्त्व है। सभी वस्तु व उसके सभी पर्यायों का ज्ञान होने से ज्ञाता की रुचि अत्यन्त निर्मल हो जाती है ।।९५७ ।।
८. क्रियासचि-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, विनयधर्म, समिति और गुप्ति के पालन करने में भाव से रुचि होना क्रियारुचि सम्यक्त्व है। कहीं 'सच्चसमिइगुत्तीसु' ऐसा भी पाठ है। उसका अर्थ है कि वास्तव में जो समिति-गुप्ति है उनमें रुचि होना, इससे आभासरूप समिति-गुप्ति का निराकरण हो जाता है अथवा 'सच्च' का अर्थ है—मन, वचन और काया तीनों की विसंवादिता से रहित समिति-गुप्ति का पालन करना।
'तप' आदि का चारित्र में समावेश होने पर भी उनका अतिरिक्त ग्रहण उन्हें मोक्ष का विशेष अंग सिद्ध करता है ॥९५८ ॥
९. संक्षेपरुचि-जिसे न तो बौद्ध आदि दर्शन का पक्षपात है, न जिनधर्म का ही राग है तथा जो कपिलादि के दर्शन के ज्ञान को भी उपादेय रूप नहीं मानता, ऐसा आत्मा अनाग्रही होने से अल्प
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org