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प्रवचन-सारोद्धार
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१७.
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स्थानांगसूत्र में कहा है कि
__ "संसार के सभी पदार्थ जीव-अजीव का विस्तार है।" यदि और भी अधिक विस्तार करना चाहे तो पदार्थ अनन्त भी हो सकते हैं।
प्रश्न-जीव-अजीव में पुण्य-पाप आदि का अन्तर्भाव कैसे हो सकता है?
उत्तर-पुण्य-पाप कर्मस्वरूप है। बंध पुण्य पाप रूप हैं। कर्म पुद्गल रूप है और पुद्गल अजीव है। अत: पुण्य-पाप व बंध का अजीव में समावेश होता है। मिथ्यात्व आदि आत्म-परिणामरूप आस्रव का जीव में तथा पुद्गल (कर्म) रूप आस्रव का अजीव में समावेश होता है। आस्रव निरोध रूप संवर भी आत्मा का परिणाम विशेष होने से जीव के अन्तर्गत ही है। निर्जरा भी जीवरूप ही है क्योंकि आत्मा ही अपनी शक्ति से कर्म का क्षय करती है। संपूर्ण कर्मों का क्षयरूप मोक्ष भी आत्मस्वरूप होने से जीव है। इस प्रकार मुख्य दो ही तत्त्व हैं।
• कहीं सात तत्त्व भी हैं। पुण्य-पाप का बंध में समावेश करके जीवादि सात तत्त्व माने
हैं ॥९७४ ॥ ६ जीव(i) एकेन्द्रिय - मात्र जिनके शरीर होता है वे जीव। जैसे—पृथ्वी, पानी, तेजस्,
वायु और वनस्पति । (ii) द्वीन्द्रिय - जिनके शरीर व जीभ दो इन्द्रियाँ होती हैं। जैसे- शंख, सीप,
अक्ष, कौड़ी, जोंक, कृमि, बरसाती कीड़े, पानी के पोरे आदि। (iii) त्रीन्द्रिय - जिनके शरीर, जीभ व नाक तीन इन्द्रियाँ होती हैं। जैसे-जू,
माकड़, गोशाला आदि में उत्पन्न होने वाला जन्तु, इन्द्रगोप, कुन्थुए,
मकोड़े, कीड़ियाँ, उदेही, आदि । (iv) चतुरिन्द्रिय - जिनके शरीर, जीभ, नाक व आँख होती हैं। जैसे—भौंरा, मक्खी,
. डाँस-मच्छर, बिच्छू, कीड़े, पतंगे आदि। (v) पंचेन्द्रिय - जिनके पाँच इन्द्रियाँ—शरीर, जीभ, नाक, आँख व कान हैं।
जैसे-हाथी, मगर, मयूर, मनुष्य आदि । (vi) अनीन्द्रिय
- संपूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने से जो शरीर रहित हो चुके हैं
ऐसे सिद्धात्मा अनीन्द्रिय हैं। ६ काय
(i) पृथ्विकाय - जिनका शरीर कठिन स्पर्श वाला होता है वे पृथ्विकाय हैं। (ii) अप्काय - जल ही है शरीर जिनका वह अप्काय है। . (iii) तेजस्काय - आग ही है शरीर जिनका वह तेउकाय है। (iv) वायुकाय - वायु ही है शरीर जिनका वह वायुकाय है।
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