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सागरोपम की होती है। तत्पश्चात् अपूर्वकरण द्वारा अतिनिबिड़ राग-द्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि का भेदन होता है। उसके बाद जीव का अनिवृत्तिकरण में प्रवेश होता है। वहाँ अतिविशुद्ध अध्यवसाय के बल से प्रतिसमय जीव उदित मिथ्यात्व को भोगकर क्षय करता है तथा अनुदित का उपशमन करता है। इसके बाद जीव अन्तरकरण में प्रवेश करता है। अनिवृत्तिकरण का समय अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इसके अन्तिम भाग में अन्तरकरण की क्रिया प्रारंभ होती है। अनिवृत्तिकरण की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति का अन्तिम एक भाग जिसमें अन्तरकरण की क्रिया प्रारंभ होती है। वह भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही होता है। अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद हैं। इसलिये यह स्पष्ट है कि अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त की अपेक्षा उसके अन्तिमभाग का अन्तर्मुहूर्त छोटा होता है।
विशेष—जिस प्रकार वेग से प्रवाहित होने वाली सरिता की धारा में पर्वत से गिरा कोई पत्थर लुढ़कते-लुढ़कते गोल चिकना एवं चमकदार हो जाता है उसी प्रकार पुद्गल परावर्तन काल-प्रवाह में अनेक कष्टों या दुःखों को सहता हुआ जीव चरमावर्त में पहुंच जाता है। इस समय उसके अध्यवसाय शुद्ध हो जाते हैं। इन शुद्ध अध्यवसायों में से ग्रंथि-स्थान तक पहुंचाने वाले अध्यवसाय को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। जीव के विशेष पुरुषार्थ के बिना ही अपने आप प्रवर्तमान होने वाला यह यथाप्रवृत्तिकरण जीव को अनन्त बार हो सकता है। परन्तु जो जीव ग्रन्थिभेद करने वाला होता है उसके अध्यवसाय अपूर्व होते हैं। इस अपूर्व अध्यवसाय के कारण ही इस करण को अपूर्वकरण कहा जाता है। अपूर्वकरण की कालावधि अन्तर्मुहूर्त की है। ग्रन्थिभेद के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ही जीव को सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है किन्तु उसकी प्राप्ति हेतु अनिवृत्तिकरण की अवस्था में जीव को अन्तरकरण की विशिष्ट प्रक्रियायें करनी पड़ती हैं।
अन्तरकरण-अन्तरकरण का अर्थ है अभी जो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म उदयगत है. उसके उन दलिकों को जो कि अनिवृत्तिकरण के बाद अन्तर्मुहूर्त तक उदय में आने वाले हैं, आगे-पीछे करना अर्थात् अनिवृत्तिकरण के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकाल में मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के जितने दलिक उदय में आने वाले हैं उनमें से कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय पर्यन्त उदय में आने वाले दलिकों में स्थापित किया जाता है और कुछ दलिकों को उस अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय में आने वाले दलिकों के साथ मिला दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकाल ऐसा हो जाता है कि जिसमें मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का दलिक रहता ही नहीं है तथा मिथ्यात्व मोहनीय के दो भाग हो जाते हैं। प्रथम भाग तो अनिवृत्तिकरण के अन्त तक उदय में आता है। दूसरा भाग, अन्तरकरण के बाद आता है। प्रथम भाग को प्रथम स्थिति कहते हैं, दूसरे भाग को द्वितीय स्थिति कहते हैं। मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से शून्य जो अन्तर्मुहूर्त काल है, वह अन्तरकरण काल कहलाता है। इसी समय में जीव औपशमिक-सम्यक्त्व प्राप्त करता है। ___ औपशमिक सम्यक्त्व का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इस काल में आत्मा अपने सामर्थ्य से सत्तागत मिथ्यात्व के दलिकों (जो अन्तरकरण के बाद उदय में आने वाले है) के तीन भाग करता है। जैसे कोई व्यक्ति औषधि के द्वारा मदनकोद्रवों का शोधन करता है, उसमें कुछ कोद्रव सर्वथा शुद्ध बन जाते हैं, कुछ अर्द्धशुद्ध बनते हैं तो कुछ सर्वथा अशुद्ध ही रहते हैं, वैसे जीव भी अपने अध्यवसायों के द्वारा सम्यक्त्व के प्रतिबंधक रस का उच्छेद करके मिथ्यात्व का शोधन करता है। मिथ्यात्व के दलिक भी शुद्ध, अर्द्धशुद्ध व अशुद्ध तीन भागों में विभक्त हो जाते हैं।
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