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प्रवचन - सारोद्धार
३-४ अन्य धर्मावलम्बियों के साथ बिना बुलाये आलाप, संलाप नहीं करना । ( ईषद् भाषणं आलापनं, पुनः पुनः संभाषणं संलापन) उनके साथ संभाषण आदि करने से परिचय होता है । उनकी प्रक्रिया बार-बार देखने में आती है इससे मिथ्यात्व भाव आने की संभावना रहती है । लोकनिन्दा से बचने के लिये बोलना पड़े तो व्यवहार से बोले ।
५. अन्य धर्मावलम्बियों को भोजन, पात्र आदि नहीं देना चाहिये। ऐसा करने से दूसरों को लगे कि यह इनका बहुमान कर रहा है। इससे दूसरों का मिथ्यात्व दृढ़ होता है (अन्य धर्मियों को अनुकम्पा से दान दिया जा सकता है) ।
सव्वेहिं पि जिणेहिं दुज्जयजियरागदोसमोहेहिं ।
सत्ताणुकंपणट्टा दाणं न कहिंपि पडिसिद्धं ।
दुर्जय ऐसे राग-द्वेष और मोह को जीतनेवाले जिनेश्वरों के द्वारा अनुकंपनीय जीवों की अनुकंपा हेतु दान देने का निषेध कहीं पर भी नहीं किया है।
६. परतीर्थिक देवों की और दूसरों द्वारा गृहीत जिन प्रतिमाओं की पूजा करने के लिये धूप, पुष्पादिक नहीं देना चाहिये। आदि से विनय - वैयावच्च - यात्रा स्नात्रादिक भी नहीं करना चाहिये। ऐसा करने से दूसरों का मिथ्यात्व दृढ होता 1
इन छ: यतनाओं का पालन करने से सम्यक्त्व निर्मल बनता है । ९३७ -९३८ ।।
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६. आगार— आगार अर्थात् अपवाद । इच्छा न होने पर भी किसी के भय से सम्यक्त्व के विरुद्ध आचरण करना अभियोग कहलाता है
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राजा के भय से
१. राजाभियोग २. गणाभियोग
स्वजनादि समुदाय के भय से
बलवान के हठ से
३. बलाभियोग
४. सुराभियोग
५. कान्तारवृत्ति
६. गुरु अभियोग
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कुलदेवतादि के भय से
प्राण बचाने के लिये
गुरुओं के भय से (माता-पिता-कलाचार्य-वृद्ध-धर्मोपदेशक-गुरुवर्ग में आते हैं)
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उपरोक्त छ: अपवाद हैं । सम्यक्त्व या व्रत लेने के बाद पूर्वोक्त छ: कारणों मे से किसी भी कारण से अन्य देवादि को वंदन - नमनादि करना पड़े तो भी सम्यक्त्व दूषित नहीं होता ॥ ९३९ ॥
६. भावना
(१) बारह प्रकार के गृहस्थ-धर्म का मूल आधार सम्यक्त्व है, जिस प्रकार मूलहीन वृक्ष प्रबल हवा के झोंकों से गिर जाता है, वैसे सम्यक्त्व रूपी मूल से रहित धर्मवृक्ष भी कुतीर्थिकों के मत रूपी वायु- वेग से स्थिर नहीं रह सकता ।
(२) बिना द्वार का नगर चारों ओर से प्राकार से वेष्टित होने पर भी नगर नहीं कहलाता क्योंकि
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