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द्वार १४८
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द्वार के अभाव में उसमें कोई भी प्रवेश-निष्क्रमण नहीं कर सकता, वैसे सम्यक्त्व रूपी द्वार के अभाव में धर्म रूपी नगर में भी प्रवेश नहीं हो सकता।
(३) नींव रहित प्रसाद सुदृढ़ नहीं होता वैसे सम्यक्त्वरूपी नींव के बिना धर्म रूप महल भी सुदृढ़ नहीं बनता।
(४) जैसे पृथ्वी रूप आधार के बिना जगत का अस्तित्व संभव नहीं होता, वैसे सम्यक्त्व रूप आधार के बिना धर्म का अस्तित्व संभव नहीं होता।
(५) पात्र के अभाव में दूध आदि नहीं रह सकते, वैसे सम्यक्त्व रूपी पात्र के अभाव में धर्म नहीं रह सकता।
(६) बड़ा खजाना हाथ लगे बिना बहुमूल्य मणि, मोती, सुवर्ण आदि द्रव्य नहीं मिलते, वैसे सम्यक्त्व रूपी खजाना मिले बिना चारित्र रूपी संपदा की प्राप्ति नहीं होती।
पूर्वोक्त छ: भावना से परिपुष्ट सम्यक्त्व शीघ्र ही मोक्ष-सुख का साधक होता है । ।९४० ।। ६ स्थान
(i) जीव अस्ति = जीव है। शरीर से भिन्न जीव का स्वतंत्र अस्तित्व है, अन्यथा प्रत्येक प्राणी में स्वसंवेदित चैतन्य असत्य प्रमाणित होगा। चैतन्य भूतों का धर्म नहीं हो सकता। अन्यथा काठिन्यादि गुणों की तरह चैतन्य भी भूतों में सर्वत्र दिखाई देता, किंतु ऐसा होता नहीं है। पाषाण आदि में तथा मृत शरीर में चैतन्य नहीं होता। चैतन्य, कार्य-कारण की अत्यन्त विलक्षणता के कारण भूतों का कार्य भी नहीं हो सकता। भूत प्रत्यक्षत: काठिन्यादि स्वभाव वाले दिखाई देते हैं, जबकि चैतन्य उससे विलक्षण संवेदनशील है। ऐसी स्थिति में दोनों का कार्य कारण भाव कैसे हो सकता है?
इस प्रकार प्रत्येक प्राणी में स्वसंवेदन सिद्ध 'चैतन्य' है और चैतन्य जिसका गुण है, वही जीव
(ii) जीवो नित्य:- जीव उत्पत्ति या विनाश रहित है। जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती, कारण उसका कोई उत्पादक नहीं है। सत् होने से विनाश भी नहीं हो सकता। यदि जीव अनित्य है तो बौद्धों की तरह उसके बन्ध व मोक्ष की व्यवस्था नहीं घटेगी। अनित्य आत्मा पूर्वापर के सम्बन्ध से रहित एक-एक ज्ञान क्षण रूप होगा। अत: बंध के ज्ञान क्षण से मोक्ष का ज्ञान-क्षण अलग होगा अर्थात् कर्म का बंधन करने वाला आत्मा अलग और मुक्त होने वाला आत्मा अलग होगा।
यह तो ऐसा होगा कि• भूख किसी को और तृप्ति किसी को। • अनुभवकर्ता अन्य और स्मरणकर्ता अन्य। • चिकित्सा का कष्ट किसी अन्य को और आरोग्य किसी अन्य को। • तपस्या करने वाला दूसरा और स्वर्ग-सुख भोगने वाला दूसरा । • शास्त्राभ्यास करने वाला दूसरा और शास्त्र-ज्ञाता दूसरा ।
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