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द्वार १४८
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७. आचार्य = गच्छ व शासन के नायक ८. उपाध्याय
ज्ञानदाता ९. प्रवचन = संघ १०. दर्शन = सम्यक्त्व (उपचार से दर्शनी को दर्शन कह सकते हैं।)
इन दस स्थानों के प्रति यथायोग्य सम्मुखगमन, आसनदान, सेवा, नमस्कार, भक्ति-पूजा आदि रूप करना । प्रशंसा द्वारा देव-गुरु के ज्ञानादि गुणों को चमकाना। निंदा-त्याग, मन, वचन, काया से आशातना का त्याग करना।
भक्ति = सम्मुख गमन, आसन-दान, उपासना करना, करबद्ध होना, अनुसरण करना आदि। पूजा = धूप, माला, वस्त्र, पात्र, अन्न, पानी आदि अर्पण करना ।
वर्णोज्ज्वलन-वर्ण = प्रशंसा, ज्वलन = ज्ञानादिगुणों को प्रकट करना अर्थात् अरिहंत आदि दश के ज्ञानादि गुणों की प्रशंसा करना।
अवर्णवादपरिहार-अरहंत आदि दस स्थानों की निन्दा न करना।
आशातना परिहार- उनके प्रति मन-वचन-काया से प्रतिकूल आचरण न करना। अरहंत आदि दस का विनय-उपचार से दर्शन विनय कहलाता है, क्योंकि यह सम्यक्त्व के सद्भाव में ही हो सकता है ॥९३०-९३१ ॥ ३. शुद्धि-वीतराग परमात्मा, उनके द्वारा प्ररूपित स्याद्वादमय जीवाजीवादि तत्त्वरूप धर्म-मार्ग तथा उस मार्ग पर चलने वाले मुनियों को छोड़कर संसार में सभी कूड़े के ढेर के समान असार है। इस प्रकार की भावना से सम्यक्त्व शुद्ध होता है, अत: ये तीन शुद्धियाँ हैं ॥९३२ ।। ५. दोष परिवर्जन(i) शंका
सर्वज्ञ के कथन में संशय करना। कांक्षा
__ अन्य दर्शन की अभिलाषा करना। (iii) विचिकित्सा
सदाचार और साधु आदि की निन्दा करना। (iv) कुलिंगी प्रशंसा
अन्य धर्मियों की प्रशंसा करना । (v) कुलिंगी संस्तव
__ अन्य धर्मियों के साथ परिचय करना। ये पाँचों सम्यक्त्व को मलिन करने वाले होने से दोषरूप हैं। सम्यक् दृष्टि आत्मा के द्वारा प्रयत्न-पूर्वक इनका त्याग करना चाहिये। इनका विस्तृत वर्णन ६ठे द्वार में किया गया है ।।९३३ ॥ ८. प्रभावक
(१) प्रावचनी-अतिशय संपन्न द्वादशांगी के धारक, युगप्रधान आदि ।
(२) धर्मकथी-क्षीराश्रवादि लब्धि से संपन्न, सजल मेघ की गर्जना के समान गंभीर वाणी से जन-मन को प्रमोद पैदा करने वाली आक्षेपणी, विपेक्षणी, संवेगजनी, और निर्वेदिनी धर्मकथा को कहने वाले।
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