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प्रवचन-सारोद्धार
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नाडीजुआ तिरज्जू उड्डाहो सत्त तो जाया ॥९१३ ॥ हेट्ठाओ वामखंडं दाहिणपासंमि ठवसु विवरीयं । उवरिम तिरज्जुखंडं वामे ठाणंमि संधिज्जा ॥९१४ ॥ तिन्नि सया तेयाला रज्जूणं हुंति सव्वलोगम्मि। चउरंसं होइ जयं सत्तण्ह घणेणिमा संखा ॥९१५ ॥ छसु खंडगेसु य दुगं चउसु दुगं दससु हुंति चत्तारि । चउसु चउक्कं गेवेज्जणुत्तराई चउक्कंमि ॥९१६ ॥ सयंभपरिमंताओ अवरंतो जाव रज्जुमाणं तु। एएण रज्जुमाणेण लोगो चउदस रज्जुओ ॥९१७ ॥
-गाथार्थलोक का स्वरूप-सातवीं माघवती नामक नरक पृथ्वी के तल से लेकर इषद्प्राग्भारा अर्थात् सिद्धशिला के उपरिवर्ती भाग पर्यंत लोक की ऊँचाई १४ रज्जु परिमाण है। लोक का निम्न विस्तार ७ रज्जु है। सातवीं नरक से एक-एक प्रदेश न्यून करते-करते मध्यलोक का विस्तार एक रज्जु परिमाण रह जाता है। तत्पश्चात् एक-एक प्रदेश वृद्धि होने से पाँचवें ब्रह्मदेवलोक के समीप लोक का विस्तार पुन: पाँच रज्जु परिमाण हो जाता है। पुन: एक प्रदेश की हानि होते-होते सिद्धशिला के समीप लोक एक रज्जु परिमाण विस्तृत रह जाता है
प्रथम रत्नप्रभा नामक नरक के ऊपर असंख्यात क्रोड़ योजन अतिक्रमण करने के पश्चात् लोक का मध्यभाग आता है ॥९०२-९०४॥
लोक संस्थान (रचना)-अधोभाग में लोक की संरचना उल्टे रखे हुए शराव की तरह है। ऊपर भाग में शराव संपुट की तरह है अर्थात् सीधे रखे हुए शराव पर दूसरा शराव उल्टा रखने पर जो आकार बनता है वैसा आकार है। यह संपूर्ण लोक पंचास्तिकायमय है ॥९०५ ॥
१४ रज्जुमय लोक के खंड बनाने की रीति—(असत् कल्पना द्वारा)–५७ तिर्यक् रेखा और ५ ऊपर से नीचे की ओर सीधी रेखा खींचना। इससे कुल ५६ खंड बनते हैं। ४ खंड का एक रज्जु होता है। ५६ में ४ का भाग देने पर १४ आते हैं। यह त्रसनाडी का परिमाण है। १ रज्जु का चतुर्थ भाग खंड कहलाता है॥९०६ ॥
संपूर्ण लोक के तिर्यक् खंडों को बताते हुए सर्वप्रथम ऊर्ध्वलोक संबंधी आठ रुचक प्रदेश से लेकर लोकान्त तक के तिर्यक् खंड-तिरछा लोक के खंडों में प्रथम की दो पंक्तियों में ४-४ खंड हैं। तत्पश्चात् क्रमश: दो पंक्तियों में ६-६, एक में ८, एक में १०, दो में १२-१२, दो में १६-१६ और चार पंक्ति में २०-२० खंड हैं।।९०७ ॥
उपरिवर्ती दो पंक्तियों में १६-१६ खंडों की, दो में १२-१२ खंडों की, तीन में १०-१० खंडों
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