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प्रवचन-सारोद्धार
आचारांग की टीका के अनुसार
• ओघसंज्ञा-अव्यक्त उपयोगरूप है जैसे, लता आदि का स्वभावत: समीपवतीं पेड़, खंभे
इत्यादि पर चढ़ना। • लोकसंज्ञा-लोकों की स्वतन्त्र कल्पना के अनुसार प्रवृत्ति करना लोकसंज्ञा है। जैसे यह
कहना कि—निसंतान की गति नहीं होती, मयूरपंख की हवा से गर्भधारण होता है, कुत्ते
यक्षरूप हैं, कौए पितामह हैं इत्यादि । अन्यमते
• ओघसंज्ञा-ज्ञानोपयोग रूप है। • लोकसंज्ञा-दर्शनोपयोग रूप है।
ये संज्ञायें सभी संसारी जीवों के होती हैं किंतु पञ्चेन्द्रिय जीवों में स्पष्ट दिखाई देती हैं और एकेन्द्रिय आदि में अव्यक्त रूप में होती हैं ॥ ९२४ ॥
१४७ द्वार:
संज्ञा १५
आहार भय परिग्गह मेहुण सुह दुक्ख मोह वितिगिच्छा। तह कोह माण माया लोहे लोगे य धम्मोघे ॥ ९२५ ॥
-गाथार्थपन्द्रह संज्ञा–१. आहार २. भय ३. परिग्रह ४. मैथुन ५. सुख ६. दुःख ७. मोह ८. विचिकित्सा ९. क्रोध १०. मान ११. माया १२. लोभ १३. लोक १४. धर्म और १५. ओघ-ये पन्द्रह संज्ञायें हैं। ९२५॥
-विवेचन १ से १० तक पूर्ववत् समझना चाहिये। ११. सुखसंज्ञा-साता वेदनीय रूप है। १२. दुःखसंज्ञा-असाता वेदनीय रूप है। १३. मोहसंज्ञा-मिथ्यादर्शन रूप है। १४. विचिकित्सासंज्ञा-चित्त की अस्थिरता है । १५. धर्म संज्ञा-क्षमा, मार्दव आदि सद्गुणों का आसेवन करना। • जीव विशेष का ग्रहण न होने से ये संज्ञायें यथासंभव सभी जीवों के होती हैं। • यद्यपि चतुर्विध, दशविध, पंचदशविध आदि संज्ञाओं के प्रकार में कुछ पुनरुक्त हैं तथापि
अलग-अलग स्थान पर वर्णित होने के कारण निर्दोष हैं। • आचारांग में सोलहवीं शोकसंज्ञा भी है। शोकसंज्ञा = रुदनरूप एवं दीनतारूप है ॥ ९२५ ॥
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