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प्रवचन-सारोद्धार
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नोअन्नतित्थिए अन्नतिथिदेवे य तह सदेवेऽवि। गहिए कुतित्थिएहिं वदामि न वा नमसामि ॥ ९३७ ॥ नेव अणालत्तो आलवेमि नो संलवेमि तह तेसिं । देमि न असणाईयं पेसेमि न गंधपुप्फाइं ॥ ९३८ ॥ रायाभिओगो य गणाभिओगो, बलाभिओगो य सुराभिओगो। कंतारवित्ती गुरुनिग्गहो य छ छिडिआओ जिणसासणम्मि ॥ ९३९ ॥ मूलं दारं पइट्ठाणं आहारो भायणं निही। दुच्छक्कस्सावि धम्मस्स सम्मत्तं परिकित्तियं ॥ ९४० ॥ . अत्थि य मिच्चो कुणई कयं च वेएइ अस्थि निव्वाणं । अत्थि य मोक्खावाओ छस्सम्मत्तस्स ठाणाई ॥ ९४१ ॥
-गाथार्थसम्यक्त्व के सड़सठ भेद-चार श्रद्धा, तीन लिंग, दश विनय, तीन शुद्धि, पाँच दोष, आठ प्रभावना, पाँच भूषण, छ: जयणा, छ: आगार, छ: भावना, छ: स्थान, इन सड़सठ लक्षण भेदों से सम्यक्त्व विशुद्ध होता है ॥ ९२६-२७ ॥
१. परमार्थसंस्तव २. सुदृष्ट परमार्थ सेवन ३. व्यापन्न-दर्शन-वर्जन तथा ४. कुदर्शनवर्जन-ये चार सम्यक्त्व की सद्दहणा है ॥ ९२८ ॥
१. शुश्रूषा २. धर्मराग ३. गुरु और देव की यथासमाधि वैयावच्च करने का नियम-ये तीन सम्यक्त्व के लिंग हैं।। ९२९ ।। ।
१. अरहंत २. सिद्ध ३. चैत्य ४. श्रुत ५. धर्म ६. साधुवर्ग ७. आचार्य ८. उपाध्याय ९. प्रवचन १०. दर्शन-इन दस पदों की भक्ति, पूजा, गुणोत्कीर्तन करना तथा अवर्णवाद और आशातना का त्याग करना दर्शनविनय है।। ९३०-३१ ।।
१. जिनेश्वर २. जिनमत एवं ३. जिनमत में स्थित साधु आदि के सिवाय संपूर्ण संसार को कूड़े के समान मानना सम्यक्त्व की तीन शुद्धि है ।। ९३२ ।।
१. शंका २. कांक्षा ३. विचिकित्सा ४. प्रशंसा ५. संस्तव-ये सम्यक्त्व के पाँच अतिचार हैं। इन्हें प्रयत्नपूर्वक त्यागना चाहिये ।। ९३३ ॥
१. प्रावचनी २. धर्मकथक ३. नैमित्तिक ४. तपस्वी ५. वादी ६. विद्यावान ७. सिद्ध ८. कवि-ये आठ प्रभावक हैं।। ९३४॥
१. जिन शासन में कुशलता २. प्रभावना ३. आयतन सेवना ४. स्थिरता और ५ भक्ति-ये पाँचों सम्यक्त्व को दीपित करने वाले उत्तम भूषण हैं ।। ९३५ ।।
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