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द्वार १४५-१४६
• कुरुबक, अशोक, तिलक आदि के पेड़, स्त्री का आलिंगन, पादप्रहार, कटाक्ष निक्षेप आदि से
फलते-फूलते हैं (मैथुन संज्ञा) ॥ ९२३ ॥
१४६ द्वार:
संज्ञा १०
आहार भय परिग्गह मेहुण तह कोह माण माया य। लोभो ह लोग सन्ना दस भेया सव्वजीवाणं ॥ ९२४ ॥
-गाथार्थदश संज्ञा–समस्त जीवों के १. आहार २. भय ३. परिग्रह ४. मैथुन ५. क्रोध ६. मान ७.माया ८. लोभ ९. लोक और १०. ओघ-ये दस संज्ञायें होती हैं। ९२४ ।।
-विवेचनसंज्ञा = 'यह जीव है' जिससे ऐसा जाना जाय वह संज्ञा है। इसके दस भेद हैं। इनमें से कुछ संज्ञायें वेदनीय व मोहनीय जन्य हैं तथा कुछ संज्ञायें ज्ञानावरण व दर्शनावरण के क्षयोपशम से होती
१. आहारसंज्ञा–पूर्ववत् २. भयसंज्ञा-पूर्ववत् ३. मैथुनसंज्ञा–पूर्ववत् ४. परिग्रहसंज्ञा
५. क्रोधसंज्ञा-जिसके उदय से नेत्र और मुख पर कठोरता आना, दांत किटकिटाना, होठ फड़फड़ाना आदि चेष्टायें हों। ये क्रोध कषाय के उदयजन्य है।
६. मानसंज्ञा-गर्व की कारणभूत संज्ञा । यह मानकषाय के उदयजन्य है। ७. मायासंज्ञा-संक्लेश पूर्वक असत्यभाषण आदि करना। यह माया कषायजन्य है।
८. लोभसंज्ञा-लालसा रखते हुए सचित्त या अचित्त द्रव्यों की प्रार्थना करना। यह लोभकषाय जन्य है।
९. ओघसंज्ञा-मंतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से शब्दादि का सामान्य ज्ञान होना, ओघ संज्ञा
१०. लोकसंज्ञा-मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से शब्दादि का विशेष ज्ञान होना, लोकसंज्ञा
• ओघसंज्ञा दर्शनोपयोगरूप है तथा लोकसंज्ञा ज्ञानोपयोगरूप है। यह स्थानांग-टीका का मत
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