________________
द्वार १३८-१३९
५४
को प्राप्त हुए। शेष १०८ न्यून दस हजार मुनि उसी दिन समयान्तर से सिद्ध हुए। ऐसी घटना अनंत काल में होने से आश्चर्यरूप है। यह आश्चर्य उत्कृष्ट अवगाहना वालों की सिद्धि में ही समझना, मध्यम अवगाहना वालों की नहीं।
१०. असंयती-पूजा-असंयत = आरंभ परिग्रह में आसक्त, अब्रह्मचारियों का । पूजा = सत्कार । पूजा के योग्य संयत ही होते हैं पर इस अवसर्पिणी में संयत के बजाय असंयतों की पूजा हुई अतएव आश्चर्य हुआ। सुविधिनाथ भगवान के मोक्षगमन के कुछ काल पश्चात् काल दोष से साधुओं का सर्वथा विच्छेद हो गया था। ऐसे समय में जिज्ञासु लोग स्थविर श्रावकों को धर्म के विषय में पूछते थे। वे भी यथामति उन्हें धर्म की जानकारी देते थे। धर्मानुराग से जिज्ञासु आत्मा स्थविर श्रावकों का धन, वस्त्रादि देकर पूजा-सत्कार करते थे। वे भी पूजा-सत्कार से गर्वित बनकर स्वमति कल्पना से शास्त्रों की रचना करके स्वार्थबुद्धि से लोगों को समझाते थे कि, धरती, मंदिर, शय्या, सोना, चाँदी, लोहा, कपास, गायें, कन्या, हाथी, घोड़े आदि का सुपात्र को दान करना चाहिये और सुपात्र हम ही हैं शेष सभी कुपात्र हैं। ऐसा उपदेश देकर वे लोगों को ठगते थे। लोग भी त्यागी गरुओं के अभाव में उन्हें ही गरु मानते थे। यह क्रम श्री शीतलनाथ भगवान के तीर्थ प्रवर्तनकाल तक चलता रहा।
ये दसों आश्चर्य अनन्तकाल के पश्चात् इस अवसर्पिणी में हुए। ये आश्चर्य उपलक्षणमात्र हैं। अनन्तकाल में ऐसे अनेक आश्चर्य हुए हैं और होंगें ॥८८५-८८६ ।।
९वां आश्चर्य......ऋषभदेव परमात्मा के समय हुआ। ७वां आश्चर्य.........शीतलनाथ परमात्मा के समय हुआ। तीसरा आश्चर्य........मल्लिनाथ परमात्मा के समय हुआ। चौथा आश्च...... नेमिनाथ परमात्मा के समय हुआ। १. २. ४. ६. ८वां आश्चर्य...महावीर परमात्मा के समय हुआ। १०वां आश्चर्य ......प्राय: सभी तीर्थंकरों के समय हुआ।
शंका-असंयती की पूजारूप दसवां आश्चर्य यदि सभी तीर्थंकरों के समय में घटित हुआ मानो तो 'पूजा असंजयाण नवमजिणे।' यह पाठ कैसे संगत होगा?
उत्तर—सुविधिनाथ से शान्तिनाथ पर्यन्त जो असंयती की पूजा हुई वह तीर्थोच्छेद के पश्चात् हुई। पर सामान्यत: असंयत पूजा तो प्राय: सभी तीर्थंकरों के समय होती रही। जैसे ऋषभदेव परमात्मा के समय मरीचि, कपिल आदि की पूजा तीर्थ के रहते ही हुई ॥८८७-८८९ ।।
१३९ द्वार:
भाषा
पढमा भासा सच्चा बीया उ मुसा विवज्जिया तासिं । सच्चामुसा असच्चामुसा पुणो तह चउत्थीत्ति ॥८९० ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org