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प्रवचन-सारोद्धार
४. असत्यामृषा-यह भाषा न तो सत्य है, न असत्य, किंतु व्यवहारोपयोगी है । इसके बारह भेद हैं।
(i) आमंत्रणी हे देवदत्त ! इत्यादि बोलना। यह भाषा सत्य, असत्य और मिश्र इन तीनों से विलक्षण मात्र व्यवहारोपयोगी है। अत: व्यवहार भाषा कहलाती है।
(ii) आज्ञापनी-किसी को काम में प्रवृत्त करने के लिये कहना कि 'यह करो।' (iii) याचनी—किसी वस्तु की याचना करना कि 'मुझे यह दो।' (iv) पृच्छनी–ज्ञान के लिये या संशय निवारण के लिये पूछना। (v) प्रज्ञापनी-शिष्यादि को उपदेश देना जैसे जीवदया का पालन करने से दीर्घ आयुष्य मिलता
(vi) प्रत्याख्यानी-नकारात्मक भाषा। यथा-ऐसा मत करो, मत माँगो आदि ।
(vii) इच्छानुवर्तिनी-पूछने वाले की इच्छा के अनुरूप जवाब देना। जैसे कोई पूछे कि 'मैं यह करना चाहता हूँ तो उसे इस प्रकार उत्तर दे कि-'आप यह काम करो, मुझे भी यह काम पसन्द है।' ॥८९४ ॥
(viii) अनभिगृहीता-डित्थादि शब्द की तरह जिसका कोई निश्चित अर्थ न हो, ऐसी भाषा बोलना। जैसे एक साथ बहुत से काम आ गये हों और कोई पूछे कि 'अब मैं क्या करूँ ?' तो कहना कि जैसा उचित हो, वैसा करो।
(ix) अभिगृहीता-निर्णयात्मक वचन बोलना। जैसे कोई पूछे कि 'अब मैं क्या करूँ' तो निश्चित कहना कि ऐसा करो।
(x) संशयकरणी—संशय पैदा करने वाली भाषा बोलना। जैसे अनेकार्थक शब्द का प्रयोग करना। किसी ने कहा कि 'सैन्धव' लाओ। यहाँ 'सैन्धव' शब्द के अनेक अर्थ हैं लवण, वस्त्र, पुरुष और घोड़ा। अत: सुनने वाले को संशय होता है कि क्या लाना चाहिये?
(xi) व्याकृता-स्पष्ट अर्थवाली भाषा बोलना। (xii) अव्याकृता-गूढ़ अर्थवाली या अस्पष्ट अर्थ वाली भाषा बोलना ।।८९५ ॥
१४० द्वार:
वचन-भेद
कालतियं वयणतियं लिंगतियं तह परोक्ख पच्चक्खं । उवणयऽवणयचउक्कं अज्झत्थं चेव सोलसमं ॥८९६ ॥
-गाथार्थवचन के सोलह भेद-कालत्रिक, वचनत्रिक, लिंगत्रिक-ये नौ वचन हुए। इनमें प्रत्यक्षवचन, परोक्षवचन, उपनय-अपनय चतुष्क एवं अध्यात्म वचन जोड़ने से वचन के सोलह भेद हुए।।८९६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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