________________
द्वार १३८
४८
होते, यदि हैं तो शान्त हो जाते हैं। तीर्थंकर का अचिंत्य प्रभाव होता है। वे श्रेष्ठपुण्य के पुंज होते हैं। तथापि भगवान महावीर को छद्मस्थावस्था व केवली अवस्था में नर-अमर व तिर्यंचकृत अनेक उपसर्ग हुए। ऐसा कभी नहीं होता, क्योंकि तीर्थाकर परमात्मा अनन्तपुण्यनिधान होने से सभी के पूज्य होते हैं, उपसर्ग के पात्र नहीं होते। अत: भगवान महावीर को होने वाले उपसर्ग लोकदृष्टि से अनन्तकालभावी आश्चर्यरूप हैं।
२. गर्भहरण-एक स्त्री के गर्भ को अन्य स्त्री के गर्भ में संक्रमण कराना गर्भहरण है। तीर्थंकर के जीवन में ऐसी घटनायें नहीं होती, पर इस अवसर्पिणीकाल में भगवान महावीर के जीवन में गर्भहरण की घटना घटी थी। भगवान महावीर ने मरीचि के भव में कलमद करके नीचगोत्र कर्म बाँधा था। उस कर्म के कारण परमात्मा को देवानन्दा ब्राह्मणी की कक्षी में उत्पन्न होना पडा। बयासी दिन पश्चात सौधर्मपति ने ज्ञान से यह देखा तो विचार किया कि 'तीर्थंकर परमात्मा कदापि नीच उत्पन्न नहीं होते । भगवान महावीर का इस प्रकार उत्पन्न होना आश्चर्यरूप है।' यह सोचकर अत्यधिक भक्ति पूर्ण हृदय से अपने सेनापति हरिणगमेषी को आदेश दिया कि— भरतक्षेत्र में, चरमतीर्थकर भगवान महावीर पर्वोपार्जित नीचगोत्र कर्म के उदय से तच्छकल में उत्पन्न हए हैं। तम उन्हें वहाँ से लेकर क्षत्रियकण्डग्राम के अधिपति सिद्धार्थराजा की पत्नी त्रिशला रानी की कुक्षि में स्थापित करो। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा स्वीकार कर हरिणगमेषी ने आंसोज सुदी तेरस की अर्धरात्रि में देवानन्दा की कुक्षि से भगवान को लेकर त्रिशला की कुक्षि में स्थापित किया। यह घटना भी आश्चर्यरूप ही है।
३. स्त्री-तीर्थंकर-स्त्री तीर्थंकर के द्वारा तीर्थ का (द्वादशांगरूप अथवा चतर्विध संघ रूप) प्रवर्तन करना भी आश्चर्यरूप है। सामान्यत: तीर्थ का प्रवर्तन त्रिभुवन में अपूर्व, अनुपमेय महिमाशाली पुरुष ही करते हैं परन्तु इस अवसर्पिणी में उन्नीसवें तीर्थंकर कुंभनृपति की पुत्री मल्लिकुमारी ने तीर्थ का प्रवर्तन किया था। घटना इस प्रकार है-पश्चिम महाविदेह की सलिलावती विजय में वीतशोका नाम की एक नगरी थी। वहाँ महाबल नामक राजा राज्य करता था। चिरकाल तक राज्य का पालन कर महाबलराजा ने अपने छ: मित्रों के साथ वरधर्म मुनीन्द्र के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। एक व्यक्ति जो तप करेगा, वही तप दूसरा करेगा, ऐसी प्रतिज्ञापूर्वक उन सातों ने एक साथ तपस्या करना प्रारंभ किया। एकदा महाबल मुनि ने अपने मित्रों की अपेक्षा विशिष्टं फल पाने की अभिलाषा से विशिष्ट तप करने का विचार किया तथा पारणे के दिन शिरोवेदना, उदरपीड़ा, क्षुधा का अभाव आदि अनेक बहाने बनाकर कपटपूर्वक वीसस्थानक तप की आराधना की। मायापूर्वक तप के द्वारा स्त्रीवेद के साथ तीर्थंकर नामकर्म का बंधन किया। वहाँ से आराधनापूर्वक मरकर वैजयन्त विमान में देव बने । वहाँ से आयु पूर्णकर मिथिला नगरी में कुंभ राजा की पत्नी प्रभावती की कुक्षि से पुत्रीरूप में उत्पन्न हुए। युवावस्था में दीक्षा ग्रहणकर मल्लिकुमारी ने केवलज्ञान प्राप्त किया। अष्टमहाप्रातिहार्यरूप तीर्थंकर योग्य महासमृद्धि से शोभित होकर उन्होंने तीर्थ का प्रवर्तन किया। स्त्री द्वारा तीर्थ प्रवर्तन की घटना अनन्तकाल बीतने के बाद कभी होती है, अत: आश्चर्यरूप है।
४. अभव्या पर्षदा-तीर्थंकर के समवसरण में व्रतग्रहण के अयोग्य श्रोतागणों की उपस्थिति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org