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द्वार १३३-१३४
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२. धूपिया -वसति की दुर्गन्ध मिटाने के लिये अगर आदि का धूप करना। . ३. वासिता -पुष्पादि द्वारा वसति को महकाना । ४. उद्योतिता -रत्नादि के द्वारा या दीपक जलाकर वसति को प्रकाशित करना। ५. बलिकृता -बली बाकुले देना। ६. अवत्ता -गोबर, मिट्टी आदि से आँगन लिपवाना। ७. सिक्ता -पानी छाँटना। ८. सम्मृष्टा -कचरा आदि निकालकर साफ करना ।
पूर्वोक्त आठ प्रकार का परिकर्म यदि साधु के लिये न किया हो तो वह वसति उत्तरोत्तर-गुण शुद्ध कहलाती है ।।८७३ ॥
अविशोधिकोटि—जिस वसति में सात मूलगुण और सात मूलोत्तरगुण साधु के निमित्त किये हों वह वसति अविशोधि कोटि की है। ऐसी वसति में साधु को ठहरना नहीं कल्पता।
दोष-अविशुद्ध या स्त्री, नपुंसक आदि से संसक्त वसति में रहने वाले मुनि को संयम-विराधना आदि बहुत से दोष लगते हैं।
यद्यपि पूर्वोक्त मूलोत्तर गुण का विभाग, लकड़ी के पाटिये, खंभे, बाँस आदि से निर्मित ग्रामीण वसति को ही ध्यान में रखकर कहा गया है, तथापि चतु:शाला (गांव के बाहर साधु, पथिक आदि के विश्राम हेतु बनाई गई परसाल) आदि के लिये भी यही विभाग समझना चाहिये। सूत्र में चतुःशाला आदि का नामोल्लेख इसलिये नहीं किया कि स्वाध्याय इत्यादि की हानि न हो इसके लिये अधिकतर मुनिलोग गाँवों में ही रहना उचित समझते हैं और गाँवों में वसति पाटिया, बाँस इत्यादि से निर्मित ही होती है। पंचवस्तुक ग्रन्थ में कहा है कि
मूलोत्तरगुणविभाग में चतु:शाला आदि का साक्षात् नामोल्लेख नहीं किया, तथापि यह गुण-विभाग चतु:शाला आदि रूप वसति के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये।
कृतकृत्य व विचरण करने वाले मुनि अधिकतर गाँवों में ही निवास करते हैं और वहाँ वसति प्राय: पाटिये इत्यादि से ही निर्मित होती है ।।८७४ ।।
१३४ द्वार:
संलेखना
चत्तारि विचित्ताइं विगईनिज्जूहियाई चत्तारि । संवच्छरे य दोन्नि उ एगंतरियं च आयामं ॥८७५ ॥ नाइ विगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं । अवरेऽवि य छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्मं ॥८७६ ॥
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