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प्रवचन-सारोद्धार
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३. द्वितीय निषद्या-प्रथम निषद्या को बहत बार लपेटने वाला कछ अधिक एक हाथ लंबा तथा एक हाथ चौड़ा सूती कपड़ा 'आभ्यन्तर निषद्या' है। यही क्षौमिक निषद्या है।
४. तृतीय निषद्या—'आभ्यन्तर निषद्या' को लपेटने वाला, एक हाथ चार अंगुल प्रमाण, चौकोर 'ऊनी कपड़ा' तीसरी निषद्या है। वह बैठने में उपयोगी होती है अत: इसे ‘पादप्रोञ्छन' (पग पूंछणिया) भी कहते हैं। यह बाह्यनिषद्या कहलाती है।
वर्तमान में बाह्यनिषद्या का आसन के रूप में उपयोग नहीं होता। यह परंपरा लुप्त हो चुकी है।
५. मुखपोत-पोत = वस्त्र अर्थात् बोलते समय मुँह ढकने में उपयोगी वस्त्र मुँहपत्ति है। इसकी लंबाई व चौड़ाई, एक बेंत चार अंगुल प्रमाण होती है। मुखवस्त्रिका में 'वस्त्र' शब्द नपुंसक होने पर भी 'क' प्रत्यय हो जाने से स्त्रीलिंग बन गया है। कहा है-स्वार्थ में होने वाले प्रत्यय प्रकृतिगत लिंग व वचन को बदल देते हैं। इस कथनानुसार 'मुखपोतं' शब्द नपुंसक होने पर भी 'क' प्रत्यय लगने से स्त्रीलिंग में 'मुखपोतिका' शब्द बन गया ॥८६० ।।
१२८ द्वार:
जागरण
सव्वेऽवि पढमयामे दोन्नि य वसहाण आइमा जामा। तइओ होइ गुरूणं चउत्थ सव्वे गुरू सुयइ ॥८६१ ॥
-गाथार्थरात्रि-जागरण—प्रथम प्रहर में सभी मुनि जगते हैं। प्रथम दो प्रहर में वृषभ साधु जगते हैं। तीसरे प्रहर में आचार्य जगते हैं। चतुर्थ प्रहर में सभी मुनि जगते हैं और आचार्य सो जाते हैं ॥८६१ ।।
-विवेचनरात्रि के प्रथम प्रहर में सभी साधु स्वाध्याय करते हुए जगें।
दूसरे प्रहर में गीतार्थ व गुरु जगें और शेष साधु सो जायें। गीतार्थ प्रज्ञापनादि उत्कालिक सूत्रों का पारायण करे।
तीसरे प्रहर में गीतार्थ सो जाये और गुरु जगे, प्रज्ञापनादि सूत्रों का पारायण करे ।
चौथे प्रहर में—शेष साधु जगकर वैरात्रिक काल ग्रहण करके कालिक सूत्रों का परावर्तन करें तथा गुरु सो जाये। यदि गुरु को पूर्ण विश्राम नहीं मिलेगा तो प्रात:कालीन प्रवचनादि कार्य ठीक से संपन्न नहीं होंगे। प्रवचनादि देते समय नींद आयेगी, शरीर टूटेगा इत्यादि ॥८६१ ॥
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