________________
कल्प-स्थविराक्ली की प्राचीनता की कसौटी
__ कल्प-स्थविरावली में प्रार्यसुधर्मा गणधर से लेकर अन्तिम श्रुतधर देवद्धिगणि क्षमाश्रमण तक के स्थविरों के नाम पाते हैं । इससे कतिपय अदीर्घदर्शी विद्वान् श्वेताम्बरमान्य जैनसिद्धान्त देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के समय में लिपिबद्ध किये मानते हैं, तब दिगम्बरीय ‘कषाय-पाहुड" तथा "षट्खण्डागम" जैसे अर्वाचीन दिगम्बर जैन-मान्य निबन्धों को ईसा के पूर्व चतुर्थ शती में लिखे गए मानते हैं, जो प्राचीनसाहित्यविहीन अपने सार्मिक दिगम्बर भाइयों को झूठा आश्वासन देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह चर्चा बड़ी गम्भीर है, अतः अन्य प्रसंग के लिए छोड़ कर आज हम प्रस्तुत "कल्प-स्थविरावली" की प्राचीनता प्रमाणित करने के लिए कुछ विवरण देंगे।
प्रकृत-स्थविरावली में कोई पाठ नये गण उत्पन्न होने की सूचना मिलती है। इनमें सर्वप्रथम भद्रबाहु के शिष्य स्थविर गोदास की तरफ से 'गोदास गण' का प्रादुर्भाव और इसकी ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पुण्ड्रवर्धनिका प्रौर दासीकर्पटिका नामक ४ शाखाओं से बंगाल के सुदूरवर्ती पूर्व उत्तर तथा दक्षिण प्रदेशों में उसका विकास हो रहा था। श्रद्धालु दिगम्बर विद्वानों की मान्यतानुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी अपने शिष्यों के साथ दक्षिण भारत में चले गए होते तो 'गोदास गण' और उसको उक्त चार शाखाएँ गंगा नदी के तट पर तथा पूर्वी समुद्र के समीप भद्रबाहु के शिष्यों द्वारा प्रचलित और दृढ़मूल नहीं होती।
इसी प्रकार प्रार्यसुहस्ती के बड़े गुरुभ्राता आर्यमहागिरि के शिष्य उत्तर और बलिस्सह स्थविरों से प्रसिद्धि प्राप्त 'उत्तर-बलिस्सह गण' और
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org