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पार्श्वनाथ - चरित्र | ॐ
* प्रथम सर्ग *
प्रोद्यत्सुयसमं सुरासुरनरैः संसेवितं निर्मलं,
श्रीमत्पार्श्वजिनं जिनं जिनपतिं कल्याणवल्लीघनम् । तीर्थेशं सुरराजवंदितपदं लोकत्रयोपावनं,
वंदेहं गुणसागरं सुखकरं विश्वैकचिन्तामणिम् ॥१॥
अर्थात् — “ देदीप्यमान सूर्यके समान, सुर-असुर और मनुष्योंसे सेवित, निर्मल, जिनपति, कल्याणलताके लिये मेघके समान, तीर्थोके नायक, देवेन्द्र भी जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं। जो लोकत्रयको पवित्र करनेवाले हैं, ज्ञानादि गुणोंके जो समुद्र हैं, सुख देनेवाले हैं, और संसारके लिये एकमात्र चिन्तामणि हैं, ऐसे श्री पार्श्वप्रभु जिनकी मैं वन्दना करता
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