Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व भाषा में मिलती हैं । कवि समयसुन्दर ने आप पर स्वतन्त्र रचनाएँ भी रची हैं । २ १०.७ जिनचन्द्रसूरि - आप महान् प्रतिभाशाली एवं विद्वान् आचार्य थे । आपका जन्म वि० सं० ११९७ में जैसलमेर के निकट विक्रमपुर नगर में हुआ था। इनके पिता शाह रासल तथा माता देल्हणदेवी थी। संवत् १२०३ में आपने भगवती जैन दीक्षा ली। आपकी असाधारण मेघा, प्रभावशाली मुद्रा एवं आकर्षक व्यक्तित्व के फलस्वरूप सं० १२०५ में ही आपको आचार्य पद प्रदान कर दिया गया। ऐसा कहा जाता है कि आपके गुरु जिनदत्तसूरि को आपके महान् व्यक्तित्व का ज्ञान आपके माता के गर्भ में अवतीर्ण होने के पूर्व ही हो गया था। इसी कारण इन्हें लघुवय में आचार्य - पद पर अधिष्ठित किया होगा । कारण, इतनी अल्प - आयु में किसी को आचार्य पद दिया गया हो, ऐसे उल्लेख विरले ही हैं। आगमिक मर्यादा भी दीक्षा के पाँच या आठ वर्ष पश्चात् आचारांग आदि अंग-सूत्र एवं छेद- सूत्रों का ज्ञान होने पर ही आचार्य - पद देने की है। ऐसा बताया जाता है कि आपके मस्तक में मणि थी, जिनके कारण ही 'मणिधारी' के नाम से आपकी प्रसिद्धि हुई । सं० १२२३ में आप स्वर्ग सिधार गए। ३
१०.८ जिनपतिसूरि - आपका जन्म वि० सं० १२१० विक्रमपुर में मालू गोत्रीय यशोवर्द्धन की पत्नी सूहवदेवी की रत्नकुक्षि से हुआ था । सं० १२१७ में दीक्षा ग्रहण की और सं० १२२३ में आचार्य पदाभूषण से अलंकृत हुए। ऐसा कहा जाता है कि आपने ३६ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की। इसी कारण इन्हें ' षट्त्रिंशत् विजेता' कहा जाता है। सम्राट पृथ्वीराज चौहान आपकी प्रतिभा एवं सर्वशास्त्रों में असाधारण पाण्डित्य देखकर बहुत प्रभावित हुआ, और वह आपको अपना सद्गुरु मानता था । उपाध्याय जिनपाल आपके बहुश्रुत विद्वान् शिष्य थे, जिन्होंने 'खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली' आदि की रचना की। इस ग्रन्थ में आपके व्यक्तित्व की विशिष्ट प्रतिभा का भी अङ्कन है। आपकी रचनाओं में 'संघपट्टक
१. (क) जिग्यिरे येन योगिन्यश्चतुःषष्टिर्यतीन्दुना ।
सूरि : श्री जिनदत्तोऽभूत्, तत्पदाम्बुजभास्करः ॥
(ख) खरतरगच्छ - पट्टावली, पत्र ३
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- समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, दादा जिनदत्तसूरिगीतम्, पृष्ठ ३४९ ३. (क) ततस्तनुभृतां प्रियः समजनिष्ट शिष्टक्रियः ।
२. द्रष्टव्य
(ख)
- अष्टलक्षार्थी, प्रशस्ति १२
प्रणष्टतिमिरोत्कर: सुजिनचन्द्रसूरीश्वरः ॥ कवित्वसुभमालिको न रमणी मनोज्ञालिको । नमन्निखिलनायकः प्रबलसौख्य सन्दायकः ॥
खरतरगच्छ - पट्टावली, पत्र ४
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- अष्टलक्षार्थी, प्रशस्ति १३
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