________________
३२
महापुराण अर्धचक्रवर्ती बन बैठा । पोदनपुरके राजाकी दो रानियां थीं-जयावती और मृगावती । जयावतीने जिस पुत्रको जन्म दिया, उसका नाम विजय था जो कि पूर्वजन्ममें विशाखभूति था। यह विजय, जैन पुराणविद्याके प्रथम बलदेव थे, उनका रंग गोरा था। मृगावतीने जिस बालकको जन्म दिया, उसका नाम त्रिपृष्ठ था जो कि अपने पूर्वजन्म में विशाखनन्दी था। यह पहले वासुदेव थे, और इनका वर्ण काला था। ये दोनों सौतेले भाई एक दूसरेके प्रति प्रगाढ़ प्रेम रखते थे।
LI एक बार राजा प्रजापतिके पास यह समाचार आया कि एक भयंकर सिंह प्रजामें आतंक मचा रहा है। प्रजाने उससे इस अनर्थको हटानेकी प्रार्थना की। तत्पश्चात् राजा स्वयं जाकर सिंहको मारनेके लिए तैयार हो गया, जब कि विजयने उससे प्रार्थना की कि उसे इस कार्यके लिए जाने दिया जाये। पिताने उसे जानेकी अनुमति दे दी, उसका छोटा भाई भी उसके पीछे गया। दोनों सिंहकी गुफामें पहुँचे, योद्धाओंके शोरगुल और चिल्लाहटसे भड़ककर सिंह बाहर आया। वह विजयपर झपटनेवाला था कि त्रिपृष्ठने अपने दोनों बाहुओं में सिंहके पंजे पकड़ लिये और उसके मुंहपर आघात किया । सिंह मरकर गिर गया।
एक दिन द्वारपाल पहँचा और राजासे निवेदन करने लगा-कि द्वारपर एक विद्याधर है जो आपसे मिलना चाहता है। उसे राजाके सम्मुख उपस्थित किया गया। विद्याधरने राजा प्रजापतिसे कहा कि उसका नाम इन्द्र है और वह राजा ज्वलनजटीका दूत बनकर आया है। वह राजा और विजय तथा त्रिपृष्ठको विद्याधर-क्षेत्रके लिए निमन्त्रित करने आया है ताकि त्रिपुष्ठ पत्थरकी शिला उठाये, जिसका नाम कोटिशिला है, तथा अश्वग्रीव को मारे और उसकी कन्या स्वयंप्रभासे शादी करे, वह तीनखण्ड धरतीका राजा बने और राजा ज्वलनजटीको विजया पर्वतकी दोनों श्रेणियोंका राजा बनाये। प्रजापतिने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। वह विद्याधर क्षेत्रमें गया। ज्वलन जटीने उनका अच्छी तरह स्वागत किया। उससे अपने पुत्र अर्ककोतिसे परिचय कराया। बातचीतके दौरान यह तय किया गया कि सबसे पहले त्रिपृष्ठ शिला उठाये जिससे उन्हें विश्वास हो सके कि वह अश्वग्रीवको मार सकता है। तत्पश्चात वे सब उस जंगलमें गये, जहां कोटिशिला रखी हुई थी। उन्होंने त्रिपृष्ठसे शिला उठानेके लिए कहा। उसने आसानीसे उसे उठा दिया । ज्वलनजटी और दूसरोंने इतनी शक्तिके लिए उसकी प्रशंसा की। उसके बाद वे सब पोदनपुर लौट आये और उन्होंने त्रिपृष्ठ और स्वयंप्रभाके विवाहका उत्सव मनाया। विवाहका समाचार अश्वग्रीवके कानोंमें पड़ा, वह ज्वलनजटीके कार्य से कुढ़ गया, कि उसने अपनी कन्याका विवाह जातिके बाहर किया-अर्थात् उसने एक मनुष्य त्रिपृष्ठको अपनी कन्या विवाह दी, बजाय विद्याधर अश्वग्रीवके । उसने मन्त्रियोंकी रायके विरुद्ध ज्वलनजटी और प्रजापतिपर चढ़ाई करने के लिए कूच किया ।
LII-चरोंने राजाको सेना और अश्वग्रीवके पोदनपुरके प्रवेशद्वार तक पहुँचनेकी सूचना दी। इसपर प्रजापतिने ज्वलनजटीसे परामर्श किया कि उन्हें किस प्रकार स्थितिका सामना करना चाहिए, जबकि विजयने कहा-मुझे विश्वास है कि त्रिपृष्ठ निश्चित रूपसे अश्वग्रीवको मार डालेगा। लड़ाई शुरू होने के पहले अश्वग्रीवने दूत भेजा, त्रिपृष्ठके पास यह जाननेके लिए कि क्या वह अश्वग्रीवके साथ सन्धि करने और स्वयंप्रभा वापस करनेके लिए तैयार है । त्रिपृष्ठने प्रस्ताव ठुकरा दिया। युद्ध शुरू हो गया। देवीने त्रिपृष्ठको सारंग नामका धनुष, पांचजन्य नामका शंख, कौस्तुभ मणि और कुमुदनी गदा और विजयके लिए हल, मुसल और गदा दिया। सेनाएँ भिड़ों और उनमें भयंकर युद्ध हुआ। युद्धके दौरान अश्वग्रीवने अपना चक्र त्रिपृष्ठपर फेंका, पर वह उनकी हानि नहीं कर सका, वह उसके हाथ में स्थित हो गया। उसने तब इसी चक्रका उपयोग अश्वग्रीवके विरुद्ध किया जिससे वह मारा गया। उसकी मृत्युके बाद त्रिपृष्ठ अर्धचक्रवर्ती बन गया। उसके शीघ्र बाद ज्वलनजटी अपनी राजधानी रथनूपुर नगर आ गया और लम्बे अरसे तक विजयाई पर्वतकी दोनों श्रेणियोंके ऊपर प्रभुसत्ताका भोग करता रहा, फिर साधु हो गया। राजा प्रजापतिने भी ऐसा ही किया । अब त्रिपृष्ठ सदैव आनन्दसे अतृप्त रहा। वह मरकर सातवें नरकमें गया। उसकी मृत्युके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org