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ग्रन्थकार शिवशर्मसूरि
'कर्मप्रकृति' के रचयिता महान् आचार्य शिवशर्मसूरि हैं । आप जैनागमों में पारंगत तथा कर्मसिद्धान्त के विज्ञाता पूर्वधर आचार्य थे। कर्मसाहित्य को आपकी अपूर्व देन रही है। उत्तरवर्ती साहित्य प्रणेता विद्वान् महाशयों के विचारों से यह जाना जाता है कि आपने आग्रायणीय पूर्व से कर्मप्रकृति के अतिरिक्त शतक नामक कर्मग्रन्थ का भी प्रणयन किया है। जिसका नवीनता के परिप्रेक्ष्य में प्रणयन देवेन्द्रसूरि ने किया तथा उनका स्मरण करते हुए स्वोपज्ञटीका में आभार प्रदर्शित भी किया है। यथा-- ... आग्रायणीय पूर्वादुधत्य परोपकार सारधिया, येनाभ्यधायि शतकः स जयति शिवशर्मसूरिश्वरः ।
इस प्रकार के उल्लेख से सूरिप्रवर की विद्वत्ता, प्रौढ़ता तथा पूर्वधर अवस्था का तो परिज्ञान होता है, किन्तु जन्म, दीक्षा, सूरिपद आदि के विषयों में कुछ भी जानकारी नहीं मिलती है।
साहित्य-अनुसन्धानकारों के द्वारा बहुत कुछ खोज करने पर भी अभी तक कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है। प्रथम टीकाकार-मलयगिरि
आगम साहित्य के प्रमुख व्याख्याकार आचार्य मलयगिरि कर्मप्रकृति के प्रथम टीकाकार हैं। यद्यपि इन्होंने 'शब्दानुशासन' नामक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना भी की है, तथापि इनकी प्रसिद्धि टीकाकार के रूप में ही है, न कि ग्रन्थकार के रूप में। इन्होंने जैनागमों के अतिरिक्त अन्य जैन ग्रन्थों पर भी टीकाएं लिखी हैं।
आपश्री की टीकाएं विषय के रहस्य को विशदता से स्पष्ट करने वाली, भाषा की प्रासादिकता, शैली की प्रौढ़ता. निरूपण की स्पष्टता आदि विभिन्न दृष्टियों से समृद्ध हैं।
आपके द्वारा कितने ग्रन्थों का आलेखन हुआ, इसका स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलता; फिर भी जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं और जिनका नामोल्लेख मिलता है, उन सब की संख्या २६ है। उनमें से २० ग्रन्थ उपलब्ध हैं। कृछएक ग्रन्थों के नाम निम्न हैं, जिन पर आपके द्वारा टीकाएं लिखी गई हैं
- व्यवहारसूत्र, भगवतीसूत्र, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, नन्दीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र, जीवाभिगमसूत्र, आवश्यकसूत्र, बृहत्कल्पसूत्र, राजप्रश्नीयसूत्र आदि आगम तथा पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति, धर्मसंग्रहणी, सप्ततिका आदि सिद्धान्त ग्रन्थ ।
सभी का ग्रन्थमान लगभग २ लाख श्लोकप्रमाण होता है । आचार्य मलयगिरि ने अपनी विद्वत्ता का ऐसा समीचीन उपयोग किया है कि जिससे अध्येता को ग्रन्थ का बोध सहजता से हो जाता है। सर्वप्रथम मूलसूत्र, गाथा या श्लोक के शब्दार्थ की व्याख्या, तदनन्तर समग्र अर्थ का स्पष्ट निर्देश किया है। इतना करने के बाद भी किन्हीं विषयों का “अयं भावः” “किमुक्तं भवति" आदि लिखकर विशद विवेचन भी किया है।
आपश्री के जन्म, दीक्षा आदि के बारे में विशेष उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, परन्तु जिस समय कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने कुमारपाल भूपाल को प्रतिबोधित किया था, उस समय में आचार्य मलयगिरि विद्यमान थे, ऐसा जिनमंडनगणिकृत कुमारभूपालचरित्र में आचार्य हेमचन्द्राचार्य की विद्यासाधना के साथ आचार्य मलयगिरि का भी उल्लेख मिलता है। उसका कुछ वर्णन इस प्रकार है
एक समय हेमचन्द्राचार्य ने गुरोराज्ञा प्राप्त कर कला-कुशलता प्राप्त करने के लिये अन्य आचार्य देवेन्द्रसूरि एवं मलयगिरि के साथ गौड़ देश की ओर विहार किया। इसी विहार परिक्रमा में खिल्लूस नामक ग्राम में पहुँचे । वहां पर एक साधु रोगग्रस्त था। उसकी आप तीनों ने तन्मयता से सेवा की। उसके मन में रैवतक तीर्थ की यात्रा करने की आतुरता थी । उसको पूर्ण करने के लिये स्थानीय लोगों को समझाकर डोली का प्रबन्ध किया। कल विहार होने से आज रात्रि वहीं शयन किया। प्रातःकाल जब जागृत हुए तो अपने आपको रैवतक पर्वत पर पाया। शासनदेवी प्रकट हुई और उसने कहा कि आपको कला-कुशलता पाने के लिये गौड़ देश में जाने की आवश्यकता नहीं है। देवी उन्हें अनेकविध विद्याएं प्रदान कर अन्तर्धान हो गई।
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