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बंधनकरण होते हैं, (४) उनसे भी संख्यात भागहानि में पुद्गल परमाणु अनन्तगुणे होते हैं, (५) उनसे भी असंख्यात भागहानि में पुद्गल परमाणु अनन्तगुणे होते हैं।' कहा भी है--
थोवा उ वग्गणाओ पढमहाणीइ उवरिमासु कमा ।
होंति अणंतगुणाओ, अणंतभागो पएसाणं ॥ अर्थात् प्रथम हानि में वर्गणायें सबसे कम होती हैं, उससे ऊपर की हानियों में वर्गणायें क्रम से अनन्तगुणी होती हैं और प्रदेश अनन्तवें भाग होते हैं । - इस प्रकार स्नेहप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा का वर्णन जानना चाहिये । नामप्रत्ययस्पर्धक और प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणायें
अव नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा और प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा करने के लिये आगे गाथा कहते हैं
नामप्पओगपच्चयगेसु वि नेया अनंतगुणणाए।
धणिया देसगुणा सिं जहन्नजेठे सगे कटु ॥२३॥ शब्दार्थ-नामप्पओगपच्चयगेसु-नामप्रत्यय और प्रयोगप्रत्यय स्पर्धकों में, वि-भी, नेया-जानना चाहिये, अनन्तगुणणाए-अनन्तगुणे, धणिया-संग्रहीत, देसगुणा-स्नेहाविभाग, सिं-उनके, जहन्नजेठेजघन्य और उत्कृष्ट (वर्गणा) को, सगे-अपनी-अपनी, कटु-स्थापित करके ।
गाथार्थ-नामप्रत्ययस्पर्धकों और प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकों में भी स्नेहप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा के समान (अविभाग, वर्गणा आदि की) प्ररूपणा जानना चाहिये । इन दोनों में केवल अनन्त गुणित वृद्धि होती है तथा इन तीनों प्रकार के स्पर्धकों की जघन्य और उत्कृष्ट अपनी-अपनी वर्गणायें पृथक्-पृथक् स्थापित करके उनमें संग्रहीत सकल पुद्गलगत स्नेहाविभाग अनुक्रम से अनन्तगुण, अनन्तगुण रूप से कहना चाहिये । नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा
विशेषार्थ--सर्व प्रथम नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा का विचार करते हैं।
नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा में छह अनुयोगद्वार होते हैं । (१) अविभागप्ररूपणा, (२) वर्गणाप्ररूपणा, (३) स्पर्धकप्ररूपणा, (४) अन्तरप्ररूपणा, (५) वर्गणागत पुद्गलों के स्नेहाविभाग के संपूर्ण समुदाय की प्ररूपणा और (६) स्थानप्ररूपणा।
१. अविभागप्ररूपणा-औदारिकादिशरीरपंचकप्रायोग्यानां परमाणूनां यो रसः, स केवलिप्रज्ञाछेदनकेन छिद्यते । छित्त्वा च निर्विभागा भागाः क्रियन्ते, तेऽविभागाः-औदारिक आदि पांच शरीरों के योग्य १ हानि के प्रसंग में गुण शब्द का अर्थ भाग रूप लेना चाहिये । इसका स्पष्टीकरण ऊपर किया गया है। २ पंचसंग्रह, बंधनकरण २४