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कर्मप्रकृति
एक-एक समय में पूरी करते हैं; किन्तु देव पांचवीं और छठी-इन दोनों पर्याप्तियों को अनुक्रम से पूर्ण न कर एक साथ एक समय में पूरी कर लेते हैं।
पर्याप्तियों के नाम इसप्रकार हैं
१. आहारपर्याप्ति, २. शरीरपर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, ५. भाषापर्याप्ति और ६. मनपर्याप्ति ।
. उक्त छहों पर्याप्तियों में अनुक्रम से एकेन्द्रिय जीव के आदि की चार (आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास), द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय के उक्त आहार आदि पर्याप्तियां के साथ भाषापर्याप्ति के मिलाने से पांच तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के आहारादि मन पर्यन्त छह पर्याप्तियां होती हैं। . पर्याप्त जीवों के दो भेद होते हैं- लब्धि-पर्याप्त और करण-पर्याप्त । जो जीव अपनी-अपनी योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके मरते हैं, पहले नहीं, वे लब्धि-पर्याप्त हैं और करण-पर्याप्त के दो अर्थ हैं। पहला-करण का अर्थ है इन्द्रियां, तुब जिन जीवों ने इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण कर ली है, वे करणपर्याप्त हैं। क्योंकि आहार और शरीर पर्याप्ति पूर्ण किये बिना इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण नहीं हो सकती है, इसलिये तीनों पर्याप्तियां ली गई हैं। दूसरा-जिन जीवों ने अपने-अपने योग्य पर्याप्तियां पूर्ण कर ली हैं, वे करणपर्याप्त हैं।
अपर्याप्त नामकर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियों के निर्माण करने में समर्थ नहीं होता है ।
पर्याप्त की तरह अपर्याप्त जीवों के भी दो भेद हैं--लब्ध्यपर्याप्त और करणापर्याप्त । जो जीव अपनी पर्याप्ति पूर्ण किये बिना ही मरते हैं वे लब्ध्यपर्याप्त हैं, किन्तु आगे की पर्याप्ति पूर्ण करने वाले हैं, उन्हें करणापर्याप्त कहते हैं। लब्ध्यपर्याप्त जीव भी आहार, शरीर और इन्द्रिय, इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरा करते हैं, पहले नहीं। क्योंकि आगामी भव की आयु का बंध करके ही सब जीव मरा करते हैं और आयु का बंध उन्हीं जीवों को होता है, जिन्होंने आहार, शरीर और इन्द्रिय-ये तीन पर्याप्तियां पूर्ण कर ली हैं।
५. प्रत्येक-साधारण नामकर्म विषयक ज्ञातव्य
जिस कर्म के उदय से प्रत्येक जीव का भिन्न-भिन्न (पृथक-पृथक) शरीर उत्पन्न होता है, उसे प्रत्येक नामकर्म कहते हैं। अर्थात् शरीर नामकर्म के उदय से रचा गया जो शरीर, जिसके निमित्त से एक आत्मा के उपभोग का कारण होता है, यानी एक-एक शरीर एक-एक आत्मा का आश्रयस्थान होता है, उसे प्रत्येक नामकर्म कहते हैं और बहुत-सी आत्माओं के उपभोग हेतु शरीर जिसके निमित्त से होता है, वह साधारण नामकर्म है।
इन साधारण शरीरधारी अनन्त जीवों के जीवन-मरण, आहार, श्वासोच्छ्वास आदि परस्पराश्रित होते हैं। अर्थात् साधारण जीवों की साधारण आहार आदि चार पर्याप्तियां और साधारण ही जन्म-मरण, श्वासोच्छ्वास, अनुग्रह और उपघात आदि होते हैं। जब एक की आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनपान पर्याप्ति पूर्ण होती है, उसी समय उस शरीर में रहने वाले अनन्त जीवों की भी हो जाती है। जिस समय एक श्वासोच्छ्वास लेता, आहार ग्रहण करता या अग्नि, विष से उपहत होता है तो उसी समय शेष अनन्त जीवों के भी श्वासोच्छ्वास, आहार, उपघात आदि होते हैं। इस प्रकार साधारण जीवों के आहारादि का ग्रहण, जीवन-मरण आदि कार्य सदृशसमान काल में होते हैं। लेकिन प्रत्येक जीवों के आहारादिक का एक-दूसरे के साथ बंधन नहीं है और उनका अपना-अपना काल-समय है। - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के तो प्रत्येक नामकर्म का उदय होने से उनका पृथक्पृथक् शरीर होता है और एकेन्द्रिय जीवों में भी पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के