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कर्मप्रकृति
मनुष्यायु के सम्बन्ध में विपाकसूत्र का सुबाहुकुमार विषयक और ज्ञाताधर्मकयांग का मेघकुमार सम्बन्धी पाठ देखा जा सकता है । विपाकसूत्र का पाठ इस प्रकार है
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'.... तत्तेणं तस्स सुमुहस्स तेणं दव्व-सुद्धेणं तिविहेणं तिकरण-सुद्धेणं २ सुबत्ते अणगारे [पडिलाभएसमाणे परीत्त संसारकए मणुस्साउए निबद्धे ]' - सुखविपाक, अध्ययन १
उक्त पाठ की पूर्वभूमिका यह है कि सुमुख गाथापति सुदत्त अनगार को अपने घर में प्रविष्ट होते देखकर अपने आसन से उठा और एकशाटिक वस्त्र का उत्तरासंग करके मुनि के सन्मुख गया एवं तीन बार प्रदक्षिणा की। इससे स्पष्ट होता है कि सुमुख गाथापति सम्यग्दृष्टि था, मिथ्यादृष्टि नहीं । मिथ्यादृष्टि साधु को भावपूर्वक वंदन नहीं करता। मुनि को सम्मानपूर्वक दान देने में मिथ्यादृष्टि को हार्दिक अंतःकरण की प्रसन्नता कदापि संभव नहीं है ।
सुमुख गाथापति द्वारा दिया गया दान दातृ, द्रव्य और पात्र शुद्धि-- इन तीनों विशुद्धियों से युक्त था । ये विशुद्धियां सम्यग्दृष्टि के दान में होती हैं, मिथ्यादृष्टि के दान में नहीं। अतः सुमुख गाथापति मुनि को दान देते समय सम्यग्दृष्टि था ।
उक्त पाठ में कोष्टकगत पद ध्यान देने योग्य है कि सुमुख गाथापति ने त्रिविध विशुद्धियुक्त त्रिकरण की शुद्धि के साथ सुदत्त अनगार को प्रतिलाभित करते हुए संसार परित किया और मनुष्यायु को बांधा। जिससे स्पष्ट होता है कि मुनि को प्रतिलाभित करने की क्रिया चालू रहते सुदत्त ने संसार परिमित किया और मनुष्यायु बांधी। अर्थात् प्रतिलाभित करने का काल, संसार परित्त करने का काल और मनुष्यायु बांधने का काल एक ही है । जैसे-'दीपक प्रकाशित हुआ और अंधकार दूर हुआ' इस वाक्य का अर्थ यह होता है कि दीप के प्रकाशित होने के साथ ही अंधकार दूर हुआ । इसमें काल का व्यवधान नहीं है । इसीप्रकार सूत्रकार ने यहां संसार परित होने और मनुष्यायु को बांधने की बात एक साथ कही है । इससे स्पष्ट कि इन दोनों क्रियाओं में काल का व्यवधान नहीं है ।
सारांश यह है कि सुमुख गाथापति ने शुद्ध सुपात्रदान द्वारा संसार को परित किया और मनुष्यायु का बंध किया । जो इस बात का प्रबल प्रमाण है कि सम्यक्त्वी जीव वैमानिक के अतिरिक्त अन्य आयु का भी बंध कर सकता है।
इसी प्रकार ज्ञातासूत्र के पाठ से भी यही सिद्ध होता है कि मेघकुमार के पूर्वभववर्ती जीव ने हाथी के भव में शशक और अन्य प्राणियों की रक्षा की, जिसके फलस्वरूप उसने संसार परित किया और मनुष्यायु का बंध किया । संबन्धित पाठ इस प्रकार है
'तं जइ ताव तुमं मेहा तिरिक्खजोणिय भावमुवगए णं अपडिलद्ध-समत्तरयण लंभेणं से पाए पाणाणुकम्पयाए जाव अन्तरा चैव सन्धारिए णो चेव णं णिक्खित्ते ।' -ज्ञातासूत्र, १/२८
उक्त पाठों से स्पष्ट है कि संसार परित होने के साथ ही मनुष्यायु का बंध किया। इसमें कहीं काल के व्यवधान का प्रसंग नहीं है । कदा चित् कोई यह कहे कि सुमुख गाथापति या मेघकुमार के पूर्वभववर्ती जीव के आयुष्य का बंध सम्यक्त्व के छूटने के बाद हुआ था तो यह असत्कल्पना है। जिसका स्पष्टीकरण ऊपर किया जा चुका है । दशाश्रुतस्कन्ध में क्रियावादी मनुष्य के लिये नरकायु के बंध का कथन है । वह पाठ इस प्रकार है-
से किं तं किरियावाईया वि भवइ ?
'तं जहा - आहियवाई, आहियपन्ने आहियदि ट्ठी सम्मावादी निइवादी संति परलोकवादी अत्थि इहलोके अत्थि परलोके अत्थि माया अस्थि पिया अस्थि अरिहंता अस्थि चक्कवट्टी अस्थि बलदेवा अत्थि बासुदेवा अत्थि सुक्कड -