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परिशिष्ट
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भगवतीसूत्र शतक ३०, उद्देश १ में लिखा है कि सम्यग्दृष्टि क्रियावादी जीव नैरयिक, तिर्यच आयु का बंध नहीं करते हैं, वे मनुष्य और देवायु का बंध करते हैं। इसका कुछ व्यक्तियों ने अर्थ लगाया है कि नरक व देवगति में रहने वाला जीव मनुष्य और तिर्यंच की आयु बांधते हैं, किन्तु मनुष्य व तिर्यंच मनुष्य व तिर्यंचायु को नहीं बांधते हैं। इस प्रकार का अर्थ अनर्थ करने वाला बनता है। जब देव और नरक में रहने वाले जीवों के मनुष्य
आय बांधने योग्य परिणाम आते हैं, तो क्या वैसे परिणाम मनुष्य व तिर्यंच में रहने वाले जीवों के नहीं आ सकते हैं ? यह कैसी अनोखी बात है ?
___ मनुष्य और तिर्यंच में रहने वाले और रोचक सम्यग्दृष्टि से युक्त जीव के मनुष्य व तिर्यंच की आयु बांधनेयोग्य परिणाम अवश्य आ सकते हैं। अतः मनुष्य व तिर्यंच की अवस्था में रहने वाला सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्य, तिर्यंच के योग्य आयुष्य बंध की लेश्याओं के अनुसार मनुष्य, तिर्यंच का आयुष्य भी बांध सकता है। :: भगवतीसूत्र शतक ३० में जो सम्यग्दृष्टि क्रियावादी का उल्लेख है, वह. विशिष्ट क्रियावादी अर्थात् पांचवें, छठे आदि गुणस्थानवर्ती जीव के लिये है। क्योंकि पांचवें, छठे आदि गुणस्थानों की आराधना की स्थिति में वैमानिक देवों में ही जाने का प्रसंग है। जैसा कि भगवती सूत्र शतक १, उद्देश २ में बताया है कि आराधक साध कम-से-कम पहले देवलोक तक और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध तक जाता है और आराधक श्रावक जघन्य पहले देवलोक तक और उत्कृष्ट बारहवें देवलोक तक। यह उल्लेख विशिष्ट क्रियावादी श्रावक और साधु के लिये माना गया है और इसी बात का संकेत ३० वें शतक में भी हुआ है। उस ३० वे शतक को लेकर विशिष्ट क्रियावादी अर्थ के बदले में सामान्य क्रियावादी (चौथा गुणस्थान) को भी ले लिया जाये तो ३०वें शतक का एवं पहले शतक का परस्पर विरोध आ जायेगा। क्योंकि उपर्युक्त पहले शतक में विराधक साधु को जघन्य भवनपति, उत्कृष्ट पहले देवलोक तक जाने का कहा है एवं विराधक श्रावक को जघन्य भवनपति, उत्कृष्ट ज्योतिषी देवलोक तक जाने का उल्लेख है। यहां जो साधु और श्रावक की विराधना मानी गई है, वह व्रतों की विराधना है, न कि सम्यक्त्व की। साधु व श्रावक के व्रत का विराधक होते हुए भी सम्यग्दृष्टि की अवस्था तो रहती ही है और सम्यग्दृष्टि सामान्य क्रियावादी है ही। तो इस विराधक साधु, श्रावक की गति भवनपति, ज्योतिष आदि की मानी है। ऐसी स्थिति में क्रियावादी वैमानिक में ही जाता है, इसका विरोध आता है और यदि विशिष्ट क्रियावादी वैमानिक में और सामान्य क्रियावादी भवनपति आदि में भी जाता है तो भगवतीसूत्र शतक ३० व शतक १ में विरोध नहीं आता है।
यदि कोई ये तर्क लगाये कि साधु और श्रावक के व्रतों के साथ सम्यक्त्व का भी वह विराधक होगा तो यह तर्क शास्त्रसंगत नहीं है। क्योंकि भगवती शतक १ में जो आराधना-विराधना बतलाई है वह व्रतों की बतलाई है, न कि सम्यक्त्व की । यदि कदाचित् सम्यक्त्वभाव की भी विराधना मान ली ज मिथ्यादृष्टि हो जाता है और मिथ्यात्व अवस्था में तो सभी गतियों का आयुष्य बांध सकता है । वैसी स्थिति में साधु व श्रावक के (विराधक के) जघन्य स्थिति भवनपति आदि बताई है, वह संगत नहीं बैटती है, क्योंकि मिथ्यात्वी के तो भवनपति आदि ही नहीं, मनुष्य, तिर्यंच, नरक आदि का भी बंध संभव है। ऐसी स्थिति में विराधक भवनपति आदि का आयुष्य बांधता है, यह बात संगत नहीं बैठती है । अतएव यह स्पष्ट है कि साधु व श्रावक व्रतों के विराधक हो सकते हैं, न कि सम्यग्दष्टिभाव के । अतः सम्यग्दृष्टिभाव के रहते हुए भी जघन्यतः भवनपति आदि की आयष्य का बंध करते हैं।
यह तो भगवती सूत्र सम्बन्धी परस्पर विरोध के परिहार की चर्चा हुई। ... अब व्रतविराधक से अतिरिक्त के सम्यग्दृष्टि मनुष्य, तिर्यंच का चिन्तन किया जाये तो वह सम्यग्दृष्टि आगम आदि की दृष्टि से भी वैमानिक देव के अतिरिक्त मनुष्यादि चारों गति की आयु बांध सकता है । उसमें