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कर्मप्रकृति
(१२) क्षीणमोहनीय मूल १
:
उत्तर १ सातावेदनीय .. ..... .
... (योग निमित्त होने से स्थिति दो समय मात्र की।) (१३) सयोगिकेवली मूल १
उत्तर १ बारहवें गुणस्थान की तरह। .
....... (१४) अयोगिकेवली . मूल •
उत्तर ० ..
अबन्धक दशा
सम्यक्त्वी के आयुबंध का स्पष्टीकरण जिस जीव ने आयुष्य बंध करने के पश्चात् अनन्तानुबंधीचतुष्क एवं मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृतियों का क्षय कर दिया, वह आत्मा क्षायिक सम्यक्त्वी कहलाती है। क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् पुनः जाता नहीं है, यह सिद्धान्त है। यदि नरक में जाने का समय आता है, उस समय यदि कुछ समय के लिये सम्यक्त्व का नष्ट होना माना जाये तो नष्ट नहीं होने की जो सर्वमान्य परिभाषा है, वह सिद्धान्त की दृष्टि से विरुद्ध जाती है। अतः पूर्वबद्धायुष्क क्षायिक सम्यक्त्वी हो जाने के बाद मरण काल के समय सम्यक्त्व का वमन नहीं करता हुआ भी नरकगति में जा सकता है ऐसा माना जायेगा, तभी सैद्धान्तिक दृष्टिकोण सुरक्षित रहेगा और यह शक्य भी है। आयुष्य बंध के समय में जिस लेश्या का रहना आवश्यक है, वही लेश्या अंतिम मरण समय में आ सकती है, पर वह लेश्या सम्यक्त्व को नष्ट कैसे कर सकती है? यदि कदाचित् यह सोचा जाये कि अनन्तानुबंधी की विसंयोजना होती है और उस अवस्था में क्षायिक सम्यक्त्वी मानकर मरण के समय अनन्तानुबंधी का पुनः आ जाना माना जाये तो इसमें कई विसंगतियां आयेगीं। प्रथम तो यह है कि मिथ्यात्व अवस्था में रहता हुआ जीव अनन्तानबंधी से संयुक्त रहता है, उस अवस्था में अनन्तानबंधी की विसंयोजना किस करण से करे और किस प्रकृति में विसंयोजना करे? क्योंकि प्रथम गुणस्थान में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि करने पर. भी वह कर्मसिद्धान्तानुसार उपशम सम्यक्त्वी ही होता है और उपशम सम्यक्त्व का काल समाप्त होने पर मिथ्यात्व के उदय की तैयारी में अनन्तानुबंधी का उदय होता है। इसलिये उपशम सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है, पर क्षायिक सम्यक्त्व में ऐसा नहीं माना जायेगा।
असत्कल्पना से कदाचित् मान लिया जाये कि क्षायिक सम्यक्त्व के पूर्व में आयुष्य बांधकर अपूर्वकरणादि करके अत्यन्त विशुद्ध परिणाम के साथ क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति करे और उसमें अनन्तानुबंधी की विसंयोजना मानी जाये और मरण के समय वह अनन्तानुबंधी पुनः आ गई और सम्यक्त्व क्षणमात्र को चला गया तो फिर नरक में जाने के बाद वैसे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति की विशुद्धि का क्या योग बन सकता है ? यदि बन सकता है तो फिर यह भी मानना होगा कि नरक में भी क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार से क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में अंतर क्या होगा ? दोनों की फलित अवस्था एक-सी हो जायेगी। अतः इस प्रकार की विसंगतियों को ध्यान में रखते हुए बुद्धिमान पाठकों को चिन्तन करना अपेक्षित है।
.. कुछ ऐसा उल्लेख भी देखने में आता है कि चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि मनुष्य, तिर्यंच, वैमानिक देवों का आयुष्य बांधते हैं, अन्य देवों और मनुष्य, तियचों का नहीं बांधते हैं। लेकिन देव और नारक, मनुष्य व तिर्यंच का आयुष्य बांध सकते हैं। इस प्रकार की विचारणा चिंतन की अपेक्षा रखती है। क्योंकि यह मान्यता सिद्धान्त, कर्मप्रकृति, तत्त्वार्थसूत्र से विपरीत जाती है । अतः पाठकों को निम्न विषय पर गंभीरता से चिन्तन करना चाहिये ।
सबसे पहले सैद्धान्तिक दृष्टि से विरोध कैसे आता है, इसको स्पष्ट करते हैं