Book Title: Karm Prakruti Part 01
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 331
________________ १७८ कर्मप्रकृति - ३. परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के उत्कृष्ट पद में उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुण है। इसी प्रकार द्वितीय, तृतीय आदि कण्डक प्रमाण स्थितियों में अनन्तगुण, अनन्तगुण जानना। जिन्हें प्रारूप में अंक ११ से २० तक के अंक पर्यन्त बतलाया है। ४. जिस स्थिति के जघन्य अनुभाग को कहकर निवृत्त हुए थे, उसकी उपरितन स्थिति का अनुभाग अनन्तगुण है, जिसे प्रारूप में ५८ के अंक से प्रदर्शित किया है। ५. प्रागुक्त उत्कृष्ट अनुभाग रूप कण्डक से ऊपर की प्रथम, द्वितीय, तृतीय यावत् कण्डक प्रमाण स्थितियों में उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुण, अनन्तगुण है। जिसे प्रारूप में २१ के अंक से ३० के अंक पर्यन्त बतलाया है। ६. इसके पश्चात् जिस स्थितिस्थान के जघन्य अनुभाग को कहकर निवृत्त हुए, उससे ऊपर की जघन्य स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुण होता है। जिसे प्रारूप में ५९ के अंक से बतलाया है। ७. इसके बाद पुनः प्रागुक्त कण्डक से ऊपर की कण्डकप्रमाण स्थितियों में उत्कृष्ट अनुभाग क्रमश: अनन्तगुण, अनन्तगुण जानना चाहिये। जिसे प्रारूप में ३१ से ४० के अंक पर्यन्त बतलाया है। ८. इस प्रकार एक स्थिति का जघन्य अनुभाग और कण्डकमात्र स्थितियों का उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुण तब तक कहना चाहिये, यावत् जघन्य अनुभाग संबंधी एक-एक स्थितियों की 'तानि अन्यानि च-वही और अन्य' रूप अनुकृष्टि से कण्डक पूर्ण हो जाये अर्थात् कण्डक पर्यन्त अनन्तगुण कहना चाहिये। प्रारूप में जघन्य अनुभाग विषयक एक स्थिति ६० के अंक से अनन्तगुणी बताई है और उत्कृष्ट अनुभाग विषयक स्थितियां कण्डक प्रमाण अनन्तगुणी ४१ से ५० के अंक पर्यन्त बतलाई हैं। इस प्रकार सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति का उत्कृष्ट अनुभाग ५० के अंक पर्यन्त कहना चाहिये। ९. इसके पश्चात् परस्पर आक्रान्त स्थितिस्थान हैं। अतः उसके ऊपर एक स्थिति, एक स्थिति का जघन्य अनुभाग और सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण स्थिति से उपरितन स्थिति का अनुभाग अनन्तगुण कहना । जिसे प्रारूप में क्रमशः ६१-५१ के अंक से बताया है। इसके ऊपर पुनः प्रागुक्त स्थिति की उपरितन स्थिति का जघन्य अनुभाग अनन्तगण है और सागरोपमशतपथक्त्व प्रमाण से ऊपर की द्वितीय स्थिति का उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुण कहना। जिसे प्रारूप में क्रमशः ६२-५२ के अंक से बताया है। १०. इस प्रकार एक जघन्य और एक उत्कृष्ट का अनुभाग अनन्तगुण तब तक कहना यावत् असातावेदनीय के जघन्य अनुभाग की सर्वोत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है । जिसे प्रारूप में ६३-५३, ६४-५४, ६५-५५ आदि लेते हुए ८० के अंक तक जघन्य स्थिति का उत्कृष्ट अनुभाग बताया है। ..११. अभी जो उत्कृष्ट अनुभाग की कण्डक मात्र स्थितियां अनुक्त हैं। वे भी यथोत्तर अनन्तगुणी जानना। जिसे प्रारूप में ७१-८० के अंक पर्यन्त उत्कृष्ट स्थिति के उत्कृष्ट अनुभाग से बताया है। असचतुष्क की तीव्रता-मन्दता (वस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक) ये चारों प्रकृतियां परावर्तमान शुभ प्रकृतियां हैं । अतः इनकी तीव्रता-मंदता का विचार उत्कृष्ट स्थिति से प्रारम्भ करके बवन्यस्मिति पर्यन्त किया जायेगा।

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