Book Title: Karm Prakruti Part 01
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 347
________________ कर्मप्रकृति २९४ २९. स्थितिबंध, अबाधा और निषेकरचना का स्पष्टीकरण स्थितिबंध योग और कषाय कर्मबंध के कारण हैं। सांसारिक जीवों के योगानुसार ग्रहण किये गये कर्मदलिकों का कापाविक अध्यवसाय के द्वारा आत्मा के साथ संबद्ध रहने के नियत काल को स्थितिबंध कहते हैं। इस प्रकार का स्थितिबंध प्रतिसमय ग्रहण किये जा रहे कर्मदलिकों में होता रहता है । कर्मों के इस स्थितिबंध का प्रमाण जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्तर कोडाकोडी सागरोपम है । एक समय में जीव जिन कमंदलिकों को ग्रहण करता है, उन सबकी स्थिति समान नहीं बंधती है, किन्तु हीनाधिक बंधती है जैसे कि किसी जीव ने जिस समय मिध्यात्वमोहनीय की जो ७० कोडाफोडी सागरोपम की स्थिति बांधी, वह उस समय में ग्रहीत सर्वकर्मदलिकों की स्थिति नहीं है, किन्तु तत्समयबद्ध लता के अंतिम निषेक की है। बद्धलता -- एक समय में ग्रहण किये गये कर्मदलिकों को स्थिति के अनुसार अनुक्रम से रखने पर चढ़ाव - उतार के मोतियों की माला के समान आकार होता है, उसे यहां लता नाम से एवं एक-एक समय में बद्ध कर्मदलिकों की एक-एक कर्मलता समझना। इस लता के प्रथम निषेक की ७००० वर्ष अबाधा ( ७० कोडाकोडी सागरोपम स्थिति की अपेक्षा) और एक समय प्रमाण जघन्य स्थिति होती है । एक साथ एक समय में उदयमान / निर्जीर्ण होने वाले कर्मदलिकों के विभाग को निषेक कहते हैं जिसका आशय इस प्रकार है- जीव द्वारा बांधी हुई ७० कोटाकोडी सागरोपम प्रमाण कर्मलताओं का अवाधाकाल ७००० वर्ष प्रमाण होता है । अर्थात् इतने समय तक तत्समयबद्ध वे कर्म जीव को कोई बाध नहीं करते - उदय में नहीं आते हैं। अबाधाकाल के बीतने पर अनन्तर समय में उस लता के जितने प्रदेश उदय में आते हैं- निर्जीण होने वाले हैं, उन्हें प्रथम निषेक जानना चाहिये । प्रथम निषेक का अबाधाकाल सात हजार वर्ष प्रमाण है। जिस समय जीव ने सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति बांधी, उस समय उस लता के दलिकों का एक विभाग सात हजार वर्ष और एक समय की स्थिति प्रमाण होता है। यह प्रथम निषेक है। इस स्थिति वाले दलिकों का प्रदेशपरिमाण अनन्तरवर्ती निषेकों की अपेक्षा सबसे अधिक जानना और उत्तरोत्तर उत्कृष्ट स्थिति वाले दलिक स्वभावतः हीन-हीन प्रदेशप्रमाण वाले होते हैं । अर्थात् द्वितीय निषेक सात हजार वर्ष और दो समय की स्थिति वाला है । इस निषेक में प्रथम निषेक से विशेषहीन दलिक और सात हजार वर्ष एवं एक समय प्रमाण अबाधाकाल होता है। तीसरा निषेक सात हजार वर्ष और तीन समय की स्थिति वाला होता है । इसमें पूर्व की अपेक्षा दलिक विशेषहीन और अबाधा ७००० वर्ष एवं दो समय प्रमाण है। इस प्रकार एक-एक समय अधिक स्थिति के बढ़ते-बढ़ते सबसे अंतिम निषेक ७० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति वाला और अबाधाकाल एक समय कम सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण जानना चाहिये । यहां सात हजार वर्ष उत्कृष्ट अबाधाकालं मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम की अपेक्षा बताया है। यह सामान्य से समझना । अन्यथा तो वह उस लता के प्रथम निषेक का अबाधाकाल हो •से जघन्य अबाधाकाल है और अंतिम निषेक का उत्कृष्ट काल तो एक समय कम सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362