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परिशिष्ट
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दुक्कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसे सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला भवन्ति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला भवन्ति। सफले कल्लाणे पावए पच्चायंति जीवा अस्थि-नेरइया जाव अस्थि-देवा अस्थि-सिद्धि से एवंवादी, एवंपन्ने, एवं-दिट्ठी छन्दरागमतिनिक्टिठे आविभवइ से भवइ महेच्छे जाव उत्तरपथगामिए नेरइए सुक्कपक्खिए आगमेसाणं सुलभबोहिया वि भवइ, से तं किरियावाई सम्वधम्मरुचिया वि भवइ।
-दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ६ वह त्रियावादी सम्यग्दष्टि परन्तु उस सम्यक्त्व की अवस्था में यदि महारंभी, महापरिग्रही है तो उत्तरपथगामी नरक का आयुष्य बांधता है। अगर सम्यक्त्व अवस्था में आयुष्य बांधने का प्रसंग नहीं होता एवं मिथ्यात्व में बांधने की स्थिति होती तो उत्तरपथगामी नरक का विशेषण नहीं लगता। क्योंकि मिथ्यात्व अवस्था में तो दक्षिणपथ आदि सभी स्थलों का बंध कर सकता है। इसी तरह जैनसिद्धान्त के सर्वमान्य ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र में कहा है
निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ।६।८ इसमें भी सम्यग्दृष्टि जीव के चारों गति का आयुष्य बांधने का उल्लेख है।
कर्मग्रंथों में क्षायिक सम्यग्दष्टि अचरम शरीरी जीव के लिये संभवित सत्ता की अपेक्षा १४१ प्रकृतियों की सत्ता मानी है । उसमें चारों आयुष्य शामिल हैं। किन्तु वर्तमान में भुज्यमान, बध्यमान की अपेक्षा एक या दो आयुष्य की सत्ता रह सकती है। यदि सम्यग्दृष्टि जीव देव या मनुष्यायु को न बांधता हो तो फिर संभवित सत्ता की दृष्टि से गिनती कैसे संभवित है ?
यहां कृतकरण की अवस्था जो कि सम्यग्दृष्टि के अन्तर्महर्त की मानी गई है, उस अवस्था में चारों गति में जाने का प्रसंग है । यदि कृतकरण की अवस्था बद्धायुष्क होती तो उस आयुष्य का ही नाम निर्देश होता, चारों का नहीं और उस मरण को भी यहां न कहकर उसी अवस्था में मरण कहा जाता, जिस अवस्था में बंध होता, परन्तु ऐसा उल्लेख यहां नहीं है। यहां का उल्लेख सिद्धान्त के उल्लेख की पुष्टि करता है ।
अतः उपर्युक्त विषय शास्त्रीय संदर्भ के साथ विद्वज्जनों को ध्यान में लेने योग्य है । ९. शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होने पर भी एकस्थानक रसबंध न होने का कारण
कर्मसिद्धान्त की मान्यता है कि कर्मों के स्थिति और अनुभाग बंध के निमित्त कषाय हैं और उत्कृष्ट स्थिति का बंध संक्लेश के उत्कर्ष होने पर ही होता है। अतएव जिन अध्यवसायों से शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, उन्हीं अध्यवसायों से एकस्थानक रसबंध क्यों नहीं होता है? तो इसका समाधान यह है कि--
उत्कृष्ट स्थिति का बंध संक्लेश के उत्कर्ष होने पर ही होता है, यह जो कर्मसिद्धान्त की मान्यता है वह शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट बंध में परिणामों की उतनी ही संक्लिष्टता है, जितनी अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट बंध में होती है, लागू नहीं होती है। इसके लिये मिथ्यात्वियों को ही उदाहरण के तौर पर समझिये कि उनके परिणामों में ही असंख्य प्रकार की तरतमता रहती है। जैसे कि एक मिथ्यात्वी के भाव कृष्णलेश्या वाले हैं और दूसरा मिथ्यात्वी शुक्ललेश्या वाला है। यद्यपि सामान्य से दोनों मिथ्यात्वी हैं और मिथ्यात्व सम्बन्धी अशुद्धता दोनों में है, लेकिन उन दोनों मिथ्यात्वियों के परिणामों में असंख्य प्रकार की तरतमता है। इसी प्रकार संक्लिष्टता शुभ और अशुभ दोनों में होते हुए भी दोनों की संक्लिष्टता में असंख्य प्रकार का अंतर आ जाता है।
'अब रहा प्रश्न कि जिन अध्यवसायों से शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, उन्हीं अध्यवसायों से एकस्थानक रसबंध क्यों नहीं होता ? तो उसका कारण यह है कि जिस समय में स्थिति का बंध प्रारम्भ होता है, उस समय से लेकर उस स्थितिबंध की वृद्धि प्रारम्भ होती है। अर्थात् पहले समय में जो स्थितिबंध