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परिमित
(असातावेदनीय, स्थावरदशक. एकेन्द्रियादि जातिचतुष्क, आदि से रहित संस्थान, संहनन १०, नरकद्विक
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असुषविहायोगति२८)
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तानि अन्यानि च सागरोपम शत पृथक्त्व
तदेक देश और अन्य पल्यो. मस.
अमुकरिसमान)
स्पष्टीकरण गाथा ६१ के अनुसार १. परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि का विचार असातावेदनीय के माध्यम से किया गया है। २. असातवेदनीय में दो प्रकार की अनुकृष्टि होती है
१. तानि अन्यानि च, २. तदेकदेश और अन्य। ३. इस प्रकार की अनुकृष्टि सातावेदनीय की अनुकृष्टि से विपरीत जानना। ४. अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिस्थान से सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण स्थिति तक की स्थितियां सातावेदनीय
के साथ परावर्तमान रूप से बंधती हैं। वे परस्पर आक्रांत स्थितियां हैं, जिन्हें--इस प्रकार की पंक्ति से सूचित
किया है। वहां तक 'तानि अन्यानि च' इस कम से अष्टि कहना अहिले। ... ५. इसके आगे उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त 'तदेकदेश और अन्य' के क्रम से अनुकृष्टि कहना चाहिये। जिसे प्रारूप में
२१ से ३० तक के अंकों द्वारा बताया है। ६. पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियों के जाने पर जयन्य अनु. स्थान की अनुष्ठि समाप्त होती है ।
उससे आगे उत्तर-उत्तर के स्थान में पूर्व-पूर्व के एक-एक स्थान की अनुकृष्टि समाप्त होती है। यह क्रम असाता की उत्कृष्ट स्थिति तक जानमा चाहिये।