Book Title: Karm Prakruti Part 01
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 313
________________ कर्मप्रकृति प्रदेशों के समुदाय रूप दूसरी वर्गणा होती है। उसमें परमाणु कम होते हैं। इस प्रकार एक-एक रसाविभाग से बढ़ती बढ़ती और परमाणुओं से घटती-घटती वर्गणायें जानना चाहिये । ३. स्पर्धकप्ररूपणा -- २६० अभव्यों से अनन्तगुण और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण वर्गणाओं का स्पर्धक होता है। ४. अन्तरप्ररूपणा पूर्व स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा और पर स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के बीच सर्व जीवों से अनन्तगुण रसाविभागों का अन्तर होता है। द्रु ५. स्थानप्ररूपणा एक समय में जीव द्वारा ग्रहण किये गये कर्मस्कन्ध के रस का समुदाय स्थान कहलाता है। अभव्यों से अनन्तगुण और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्पर्धकों का प्रथम स्थान होता है। उसके बाद के स्थानों में स्पर्धक अनन्तभागादि षट्बुद्धि वाले जानना चाहिये । ६. कंडकप्ररूपणा — अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थानों का एक कंडक होता है । ७. षट्स्थानप्ररूपणा रसस्थानों में एक स्थान से दूसरे स्थान में स्पर्धक की अपेक्षा १. अनन्तभागवृद्धि २. असंख्यात भागवृद्धि, ३ संख्यातभागवृद्धि, ४ संख्यातगुणवृद्धि, ५. असंख्यातगुणवृद्धि और ६. अनन्तगुणवृद्धि इन छह प्रकार की वृद्धियों के स्थान की प्ररूपणा को षट्स्थानप्ररूपणा कहते हैं । एक षट्स्थान में असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण स्थान होते हैं। ऐसे पदस्थान भी असंख्यात हैं। ८. अधस्तनस्थानप्ररूपणा- रसस्थानों में विवक्षित वृद्धि के स्थानों की अपेक्षा उनसे नीचे होने वाली अनन्तर वृद्धि अथवा एकान्तरादिक वृद्धि के स्थान का विचार करना । ९. बुद्धिप्ररूपणा छह प्रकार की वृद्धि और हानि में से अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। अर्थात् एक जीव निरंतर रूप से अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है और शेष अनन्तभागाधिक आदि पांच वृद्धियों और हानियों में निरन्तर आवली के असंख्यातवें भाग जितने काल तक रहता है। - १०. समयप्ररूपणा जघन्य से सभी स्थानों का काल एक समय प्रमाण है तथा उत्कृष्ट काल इस प्रकार है- जघन्य स्थान से असंख्यात लोकाकाश प्रदेशप्रमाण स्थान चार समय की स्थिति वाले, उसके बाद के असंख्यात लोकाकाश प्रदेशप्रमाण स्थान पांच समय की स्थिति वाले हैं । इस तरह असंख्यात - असंख्यात लोकाकाश प्रदेशप्रमाण स्पान क्रमश: छह, सात, आठ समय की स्थिति वाले हैं। तत्पश्चात् उससे आगे हानि कहना चाहिये। अर्थात् सात, छह, पांच, चार, तीन और अन्त के असंख्यात लोकांकाण प्रदेशप्रमाण स्थान दो समय की स्थिति वाले जानना चाहिये । ११. यवमध्यप्ररूपणा जैसे यव (जी) का मध्यभाग चौड़ा होता है और दोनों बाजुओं में अनुक्रम से हीन-हीन ( संकड़ा ) होता जाती है, उसी प्रकार यहां भी अष्टसामयिक अध्यवसायस्थान यवमध्य समान जानना चाहिये। क्योंकि समय की

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