Book Title: Karm Prakruti Part 01
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 315
________________ २६२ कर्मप्रकृति १३. पर्यवसानप्ररूपणा अनन्तगुणवृद्धि के एक कंडक प्रमाण स्थानों का अतिक्रमण करने के पश्चात् अनन्तभागाधिकादि पांच वृद्धि के सर्व स्थानकों की पूर्णता के पश्चात् अनन्तगुणवृद्धि का स्थान प्राप्त नहीं होता है। अर्थात् वहां षट्स्थानक की समाप्ति होती है। १४. अल्पबहुत्वप्ररूपणा- . - इसका दो रीति से विचार किया गया है- १. अनन्तरोपनिधाप्ररूपणा, २. परंपरोपनिधाप्ररूपणा । अनन्तरोपनिधाप्ररूपणा इस प्रकार है-अनन्तगुणवृद्धि के स्थान सर्वस्तोक (कंडकमात्र होने से), उससे असंख्यातगुणवृद्धि के असंख्यातगुण ( कंडकगुण और कंडक ), उससे संख्यातगुणवृद्धि के असंख्यातगुण, उससे संख्यात [गवृद्धि के असंख्यातगुण, उससे असंख्यातभागवृद्धि के असंख्यातगुण, उससे अनन्तभागवृद्धि के असंख्यातगुण । गुणाकार कंडकगण और कंडक प्रमाण । परंपरोपनिधा प्ररूपणा इस प्रकार है-अनन्तभागवद्धि के स्थान सर्वस्तोक, उससे असंख्यातभागवृद्धि के असंख्यातगुण, उससे संख्यातभागवृद्धि के संख्यातगण, उससे संख्यातगुणवृद्धि के स्थान असंख्यातगुण. उससे असंख्यातगुणवृद्धि के असंख्यातगुण, उससे अनन्तगुणवृद्धि के असंख्यातगुण । २४. प्रसत्कल्पना द्वारा अनुकृष्टिप्ररूपणा का स्पष्टीकरण ( गाथा ५७ से ६५ तक) १. अनुकृष्टि अर्थात् अनुकर्षण, अनुवर्तन । अनु-पश्चात् (पीछे से) कृष्टि-कर्षण-खींचना यानी पाश्चात्य स्थितिबंधगत अनुभागस्थानों को आगे-आगे के स्थितिबंधस्थान में खींचना । ५५ अपरावर्तमान अशुभ प्रकृतियों में से किसी की ३० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण, किसी की २० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है । उसे असत्कल्पना से यहां १ से २० के अंक द्वारा बताया गया है। १ जघन्य स्थितिस्थान और २० उत्कृष्ट स्थितिस्थान जानना चाहिए। २. अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिस्थान (अन्तःकोडाकोडी) से नीचे के स्थितिस्थान अनुकृष्टि के अयोग्य हैं, जो १ से ८ तक के अंक द्वारा जानना चाहिए । ३. नौ (९) के अंक से अनकृष्टि प्रारंभ होती है। अंक के सामने रखे गये ० (शन्य) तथा A(त्रिकोण) को अनुभागबंधाध्यवसायस्थान रूप जानना । लेकिन इतना विशेष है कि ० (शून्य) से मूल अनुभागबंधाध्यवसायस्थान और A (त्रिकोण) से मूलोपरांत का नवीन स्थान समझना चाहिए । ४. पल्योपम के असंख्यातवें भाग रूप स्थान को चार अंकों (९,१०,११,१२) द्वारा बताया गया है । ५. प्रत्येक स्थितिस्थान में (हीनाधिक) असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं। जिन्हें यहां यथायोग्य ० (शून्यों) के द्वारा बताया है । अर्थात् उतने अनुभागबंधाध्यवसायस्थान जानना । ६. नौ (९) के अंक से अनुकृष्टि का प्रारम्भ होना समझना चाहिए। वहां जितने अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका 'तदेकदेश तथा अन्य' इतने अनु० स्थान दसवें स्थान में होते हैं । तदेकदेश तथा अन्य' अर्थात् पूर्वस्थान के अध्यवसायों के असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष सर्व और दूसरे भी। नौवें स्थितिस्थान में जो स्थान होते हैं, उनमें के दसवें स्थितिस्थान में (तदेकदेश रूप) शून्य के द्वारा बताये गये स्थान हैं। उन्हें बताने के लिये शून्यों में से आदि के यथायोग्य शून्य खाली छोड़कर शेष शून्यों के नीचे पुनः शून्य दिये गये हैं । अर्थात् पूर्व स्थितिस्थान में के अन० स्थानों की पीछे के स्थितिस्थान में अनुकृष्टि जानना तथा Aत्रिकोण द्वारा 'अन्य' दूसरे नवीन अनु० स्थान जानना ।

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