Book Title: Karm Prakruti Part 01
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 296
________________ परिशिष्ट २४३ १६. वर्गणाओं के वर्णन का सारांश एवं विशेषावश्यकभाष्यगत व्याख्या का स्पष्टीकरण ___ यह लोक पुद्गलपरमाणुओं से खचाखच व्याप्त है । जो अपने-अपने समगुण और समसंख्या वाले समूहों में वर्गीकृत हैं और इनके संयोग से संसारी जीव के शरीर, इन्द्रिय आदि की रचना होती है। कर्मशास्त्र में इन समगुण और समसंख्या वाले पुद्गल परमाणुओं के समुदाय के लिये वर्गणा शब्द का प्रयोग किया जाता है। वर्गणायें एक-एक परमाणु से लेकर द्वि, त्रि, चतुः आदि संख्यात, असंख्यात, अनन्त, अनन्तानन्त, सिद्ध जीवों की राशि के अनन्तवें भाग और अभव्य जीवों से अनन्तगुणे आदि प्रदेशों वाली हो सकती हैं। ये वर्गणायें दो भागों में विभाजित हैं--ग्रहण और अग्रहण वर्गणा । सलेश्य जीव के द्वारा जो वर्गणायें ग्रहण की जाती हैं और ग्रहण करने योग्य हैं, उन्हें ग्रहणवर्गणा कहते हैं और जो ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, वे अग्रहणवर्गणा कहलाती हैं । अग्रहणवर्गणाओं की अग्रहणता के तीन कारण हैं--पहला यह कि ऐसी बहुत-सी वर्गणाएं हैं जो अल्प प्रदेशवाली होने से संसारी जीवों द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं होती हैं। दूसरा यह कि जितनी संख्या वाले परमाणु जीव द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, परमाणुओं की उतनी-उतनी संख्या उन वर्गणाओं में होने पर भी जीव में तत्तद ग्रहणयोग्य क्षमता नहीं होने से ग्रहणयोग्य नहीं बन पाती हैं। तीसरा यह कि कुछ कभी भी जीव के ग्रहणयोग्य नहीं बनती हैं। ___कर्मसिद्धान्त में इन सब ग्रहण और अग्रहण वर्गणाओं को निम्नलिखित छब्बीस विभागों में वर्गीकृत किया गया है १. अग्रहण, २. औदारिक, ३. अग्रहण, ४. वैक्रिय, ५. अग्रहण, ६. आहारक, ७. अग्रहण, ८. तैजस, ९. अग्रहण, १०. भाषा, ११. अग्रहण, १२. श्वासोच्छ्वास १३. अग्रहण, १४. मन, १५. अग्रहण, १६. कार्मण, १७. ध्रुवाचित्त, १८. अध्रुवाचित्त, (सान्तर निरंतरा), १९. ध्रुवशून्य, २०. प्रत्येकशरीरी, २१. ध्रुवशून्य, २२. बादरनिगोद, २३. ध्रुवशन्य, २४. सूक्ष्मनिगोद, २५. ध्रुवशून्य, २६. महास्कन्ध । . कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि कर्मग्रंथों में तथा विशेषावश्यकभाष्य मे इन वर्गणाओं का वर्णन किया है। लेकिन दोनों के वर्णन में समानता भी है और असमानता भी है। जिसको यहां स्पष्ट करते हैं। कर्मप्रकृति तथा पंचसंग्रह में परमाणुवर्गणा के अर्थ में सर्व परमाणुओं के लिये पृथक्-पृथक् वर्गणा शब्द कहा है। इसी प्रकार द्विपरमाणु आदि सभी वर्गणायें कही हैं। जिनसे यह तात्पर्य निकलता है कि परमाणवर्गणा अनन्त हैं, द्विपरमाणु वर्गणायें भी अनन्त हैं इत्यादि, परन्तु कर्मग्रन्थ (श्री देवेन्नासूरि विरवित) में तो सर्व परमाणुओं के संग्रह अर्थ में परमाणुवर्गणा का प्रयोग किया है। इसी प्रकार द्विपरमाणुस्कन्धों के संग्रह के लिये द्विपरमाणुवर्गणा कही है। अर्थात् परमाणुवर्गणा एक है किन्तु अनन्त नहीं हैं। द्विपरमाणुवर्गणा एक और स्कन्ध अनन्त, त्रिपरमाणुवर्गणा एक परन्तु स्कन्ध अनन्त, इस प्रकार कहा है। कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह और कर्म ग्रन्थ के उक्त कथन में अन्तर यह है कि कर्मग्रन्थकार तो द्विपरमाणचक अनन्त स्कन्धों को एक वर्गणा कहते हैं, जबकि कर्मप्रकृति के टीकाकार आचार्य मलयगिरि द्विपरमाण रूप जो अनन्त स्कन्ध हैं, वे द्विपरमाणु रूप अनन्त वर्गणायें हैं। इस अर्थ में स्कन्ध और वर्गणा इन दो शब्दों में विशेषता का अभाव है, क्योंकि तब तो जो द्विपरमाणु रूप एक स्कन्ध ही द्विपरमाणु रूप एक वर्गणा हो जायेगा। यदि कर्मग्रन्थकार और कर्मप्रकृति के टीकाकार आचार्य मलयगिरि के कथन का अपेक्षापूर्वक विचार किया जाये तो आचार्य मलयगिरि के कथनानुसार स्कन्ध और वर्गणा एकरूप हैं और श्रीमद् देवेन्द्रसूरि के अनुसार स्कन्ध और वर्गणा अलग-अलग हैं।

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