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परिशिष्ट
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दिगम्बर कर्मग्रंथों में भी वर्गणाओं का विचार किया गया है। उस वणन में कुछ विभिन्नताओं के रहने पर भी प्रायः समानता है। वहाँ वर्गणाओं के निम्नलिखित २३ भेद हैं
अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, तेजस्वर्गणा, अग्रहणवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्रहणवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, कार्मणशरीरवर्गणा, ध्रुवस्कन्धवर्गणा, सान्तर-निरन्तरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा।
आहार वर्गणा से औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर, इन तीन वर्गणाओं का ग्रहण किया है । १७. नामप्रत्ययस्पर्धक और प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणाओं का सारांश नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा
बंधन नामकर्म के उदय से परस्पर बंधे हए शरीरपुद्गलों के स्नेह के निमित्त वाले स्पर्धक की प्ररूपणा को नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा कहते हैं। इस प्ररूपणा के निम्नांकित छह अनुयोगद्वार हैं
. १. अविभागप्ररूपणा, २. वर्गणाप्ररूपणा, ३. स्पर्धकप्ररूपणा, ४. अन्तरप्ररूपणा, ५. वर्गणागत पुदगलस्नेहाविभागसमुदायप्ररूपणा, ६. स्थानप्ररूपणा ।
१. अविभागप्ररूपणा-औदारिकादि पांच शरीरप्रायोग्य परमाणुओं के रस के निविभाज्य अंश (गुणपरमाणु, भावपरमाणु)।
. २. वर्गणाप्ररूपणा-सर्व जीवराशि से अनन्त गुणे अविभागों की प्रथम वर्गणा (प्रथम शरीरस्थान में सब से कम और समान स्नेह वाले परमाणुओं का समुदाय)।
३. स्पर्धकप्ररूपणा--प्रथम वर्गणा के अनन्तर एक-एक स्नेहाविभाग से बढ़ते-बढ़ते पुद्गलों के समुदाय रूप अभव्य से अनन्तगुणी वर्गणाओं का प्रथम स्पर्धक । प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा से द्वितीय स्पर्धक की पहली वर्गणा में दुगने स्नेहाविभाग, तीसरे स्पर्धक की पहली वर्गणा में तिगुने । इस तरह जितनी संख्या का स्पर्धक हो, उतने गणे स्नेहाविभाग उस स्पर्धक की प्रथम वर्गणा में जानना चाहिये।
४. अन्तरप्ररूपणा--पूर्व स्पर्धक की अन्त्य वर्गणा और द्वितीय स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के मध्य सर्व जीवराशि से अनन्तगुणे रसाविभागों जितना अन्तर है और एक स्थान में स्थान के एक हीन स्पर्धकप्रमाण अन्तर है । ... वर्गणाओं में वृद्धि दो प्रकार की होती है-अनन्तरवृद्धि, परंपरवृद्धि । अनन्तर क्रम से दो वृद्धियां होती हैं-एक-एक अविभाग वृद्धि और अनन्तानन्त अविभागवृद्धि । एक-एक अविभागवृद्धि एक स्पर्धक स्थित वर्गणाओं में होती है तथा परंपरा से प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा की अपेक्षा अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि, ये छहों वृद्धियां जानना चाहिए।
५. वर्गणागत पुद्गल-स्नेहाविभागसमुदायप्ररूपणा-प्रथम शरीरस्थान की प्रथम वर्गणा में स्नेहाविभाग अल्प, उससे दूसरे शरीरस्थान की प्रथम वर्गणा में अनन्तगुणे, इसी प्रकार अन्तिम शरीरस्थान तक जानना चाहिए।
६. स्थानप्ररूपणा-अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्पर्धक का प्रथम शरीरप्रायोग्यस्थान होता है। उससे बाद के स्थानों में षट्स्थानों ( वृद्धि रूप छहस्थान) के क्रम से स्पर्धकवृद्धि समझना चाहिये । समस्त शरीरस्थान असंख्य लोकाकाशप्रदेश प्रमाण एवं सर्व षट्स्थान असंख्य हैं।