________________
ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम
गोत्र अन्तराय
०
२८
०
____ २५
०
०
अनुक्रम द्वार नाम १३. पुद्गलविपाकी १४. भवविपाकी १५. क्षेत्रविपाकी १६. जीवविपाकी १७. स्वानुदयबंधि १८. स्वोदयबंधि १९. उभयबंधि २०. समकव्यव. बंधोदय २१. क्रमव्यव. बंधोदय २२. उत्क्रमव्यव. बंधोदय २३. सान्तरबंध २४. सान्तर-निरंतरबंध २५. निरन्तरबंध २६. उदयसंक्रमोत्कृष्ट २७. अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट २८. उदयबंधोत्कृष्ट २९. अनुदयबंधोत्कृष्ट ३०. उदयवती ३१. अनुदयवती
.
०
०
०
०
०
०
० ५ ४१ १७ . २७१
.
०
०
५
०
०
५
२४
०
८४
०
१
०
११४
१२. जीव की वीर्यशक्ति का स्पष्टीकरण
ज्ञान, दर्शन आदि की तरह वीर्यशक्ति भी जीव का गुण, स्वभाव है, जो सभी जीवों में पाई जाती है। जीव दो प्रकार के हैं-अलेश्य और सलेश्य । इनमें से अलेश्य (लेश्यारहित) जीवों की वीर्यशक्ति समस्त कर्मावरण के क्षय हो जाने से क्षायिक है । अत: निःशेषरूप से कर्मक्षय हो जाने के कारण वह कर्मबंध का कारण नहीं है। जिससे न तो अलेश्य जीवों का कोई भेद है और न उनकी वीर्यशक्ति में तरतमता का अंतर है। किन्तु सलेश्य जीवों की वीर्यशक्ति कर्मबंध का कारण होने से यहां उन्हीं की वीर्यशक्ति का विचार करते हैं।
सलेश्य जीवों में कार्यभेद अथवा स्वामिभेद से वीर्य के भेद होते हैं। उनमें कार्यभेद की अपेक्षा भेद वाला वीर्य एक जीव को एक समय में अनेक प्रकार का होता है तथा स्वामिभेद की अपेक्षा भेद वाला एक जीव को एक समय में एक प्रकार का और अनेक जीवों की अपेक्षा अनेक प्रकार का है।
सलेश्य जीवों के दो भेद हैं-छदमस्थ और केवली। अतः वीर्य-उत्पत्ति के दो रूप हैं-वीर्यान्तराय कर्म के देशक्षयरूप और सर्वक्षयरूप । देशक्षय से प्रकट वीर्य को क्षायोपशमिक और सर्वक्षय से प्रकट वीर्य को क्षायिक कहते हैं। देशक्षय से छद्मस्थों में और सर्वक्षय से केवलियों में वीर्य प्रकट होता है। जिससे सलेश्य बीर्य के दो