Book Title: Karm Prakruti Part 01
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 292
________________ परिशिष्ट योगस्थान के तीन भेद हैं-उपपादयोगस्थान, एकान्तानुवद्धियोगस्थान, : परिणामयोगस्थान। भवधारण करने के पहले समय में रहने वाले जीव को उपपादयोगस्थान होता है। अर्थात् तत्तत् भव में जन्म लेने वाले जीव के प्रथम समय में जो योग होता है, वह उपपादयोगस्थान है। भवधारण करने के दूसरे समय से लेकर एक समय कम शरीरपर्याप्ति के अंतर्मुहुर्त तक एकान्तानुवृद्धियोगस्थान होता है और अपने समयों में समय-समय असंख्यातगुणी अविभागप्रतिच्छेदों की वृद्धि होने से वह एकान्तानुवृद्धियोगस्थान कहलाता है और शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होने के समय से लेकर आयु के अंत तक होने वाले योग को परिणामयोगस्थान कहते हैं। ये परिणामयोगस्थान अपनी-अपनी शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होने के समय से आयु के अंत समय तक सम्पूर्ण समयों में उत्कृष्ट भी होते हैं और जघन्य भी संभव हैं और जिसकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती, ऐसे लब्ध्यपर्याप्तक जीव के अपनी आयु के अंत के विभाग के प्रथम समय से लेकर अंत समय तक स्थिति के सब भेदों में उत्कृष्ट और जघन्य दोनों प्रकार के परिणामयोगस्थान जानना चाहिये। ६. अनन्तरोपनिधाप्ररूपणा-- ___ पूर्व-पूर्व योगस्थान से उत्तर-उत्तर के योगस्थान में अंगुल के असंख्यातवें भाग गत प्रदेशराशि प्रमाण स्पर्धक अधिक हैं। ७. परम्परोपनिधाप्ररूपणा-- प्रथम योगस्थान से श्रेणी के असंख्यात वें भाग आगे जाकर उत्तर योगस्थान में स्पर्धक दुगुने हो जाते हैं । अर्थात् प्रथम योगस्थान में जितने स्पर्धक होते हैं, उनकी अपेक्षा श्रेणी के असंख्यातवें भाग में जितने प्रदेश होते हैं, उतने प्रदेशराशि प्रमाण योगस्थानों का अतिक्रमण करके अनन्तरवर्ती योगस्थान में दुगुने स्पर्धक होते हैं। इसीप्रकार इसी क्रम से अंतिम योगस्थान पर्यन्त यह वृद्धि कहना चाहिये। द्विगुण-द्विगुण वृद्धिस्थानों में ये स्पर्धक पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। द्विगुणवृद्धि के योगस्थानों की तरह द्विगुणहानि के योगस्थान भी समझना चाहिये । आरोहण करने से जो वृद्धिस्थान प्राप्त होते हैं, वे ही नीचे उतरने की अपेक्षा हानिस्थान कहलाते हैं । इस प्रकार द्धि और हानि के स्थान समान होते हैं। जिसका आशय यह है कि उत्कृष्ट योगस्थान से नीचे उतरने पर असंख्यातवें भाग प्रदेशप्रमाण योगस्थानों के उल्लंघन करने पर अघस्तनवर्ती योगस्थान में पूर्व के अंतिम योगस्थान के स्पर्धकों की अपेक्षा आधे स्पर्धक प्राप्त होते हैं। उसके बाद फिर उतने ही योगस्थानों का अतिक्रमण करने पर अधोवर्ती योगस्थान में आधे स्पर्धक प्राप्त होते हैं। इसी क्रम से जघन्य योगस्थान पर्यन्त कहना चाहिये। द्विगुण हानिस्थान में भी स्पर्धक पल्य के असंख्यातवें भागगत समयप्रमाण हैं। ८. वृद्धिप्ररूपणा-- -- जीव के योगस्थान की जो वृद्धि, हानि होती है, वह चार प्रकार की है १. असंख्यभागाधिक वृद्धि, २. संख्यभागाधिक वृद्धि, ३. संख्यगुणाधिक वृद्धि, ४. असंख्यगुणाधिक वृद्धि। १. असंख्येयभागहानि, २. संख्येयभागहानि, ३. संख्येयगुणहानि ४. असंख्येयगुणहानि। ....... असंख्येय गणवृद्धि और असंख्येय गुणहानि इन दोनों का उत्कृष्ट काल अन्तर्महुर्त है और शेष तीन वृद्धियों और हानियों का उत्कृष्ट काल आवलिका का असंख्यातवां भाग प्रमाण है। ९.. · समयप्ररूपणा- .. पर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव के जघन्य योगस्थान पर्यन्त सर्व योगस्थान से संज्ञी पंचेन्द्रिय के उत्कृष्ट योगस्थान पर्यन्त सर्व योगस्थानों को क्रमवार स्थापन करें तो कितने ही (श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण) योगस्थान उत्कृष्ट से चार समय की स्थिति वाले हैं, उससे आगे उतने योगस्थान उत्कृष्ट से पांच समय की, उससे

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