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कर्मप्रकृति
भेद हैं-छादमस्थिक सलेश्य वीर्य और कैवलिक सलेश्य वीर्य। केवली जीवों के अकषायी होने से उनका अवान्तर कोई भेद नहीं है। सिर्फ कषायरहित मन-वचन-काय परिस्पन्दन रूप वीर्यशक्ति है। किन्तु छाद्मस्थिक जीव दो प्रकार के है-अकषायी सलेश्य और सकषायी सलेश्य ।
. कषायों का दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में विच्छेद हो जाने से छाद्मस्थिक अकषायी सलेश्य वीर्य म्यारहवें और बारहवें (उपशान्तमोह, क्षीणमोह) गुणस्थानवी जीवों में और छाद्मस्थिक सकषायी सलेश्य वीर्य दसवें गुणस्थान तक जीवों में पाया जाता है।
. सलेश्य जीवों में वीर्यप्रवृत्ति दो रूपों में होती है। एक तो दौड़ना, चलना, खाना आदि निश्चित कार्य को करने रूप प्रयत्नपूर्वक और दूसरी बिना प्रयत्न के स्वयमेव होती रहती है। प्रयत्नपूर्वक होने वाली प्रवृत्ति को अभिसंधिज और स्वयमेव होने वाली प्रवृत्ति को अनभिसंधिज कहते हैं।
. जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है कि वीर्यशक्ति समस्त जीवों में पायी जाती है। अतः एकेन्द्रिय बादर सूक्ष्म जीवों में जो परिस्पन्दन रूप क्रिया देखने में आती है, वह भी वीर्यशक्ति का रूप है और सरलता से समझने के लिये योग शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह योग शब्द भी वीर्य के अनेक नामों में से एक नाम है।
वीर्य शक्ति के उक्त स्पष्टीकरण एवं भेदों को सरलता से इस प्रकार जाना जा सकता है
वीर्य
सलेश्य
अलेश्य
.
क्षायिक (अयोगिकेवली तथा सिद्ध)
क्षायोपशमिक (छद्मस्थ)
क्षायिक (अछदमस्थ) (सयोगिकेवली)
अभिसंधिज
अनभिसंधिज
अकषायी
सकषायी
अभिसंधिज
.
अनभिसंधिज
अभिसंधिज
अनभिसंधिज
चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय में और सिद्धों का अकरण वीर्य होता है। पंचसंग्रह, बंधनकरण अधिकार, गाथा २, ३ में भी इसी प्रकार जीव की वीर्यशक्ति का विचार किया गया है ।