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परिशिष्ट (८) अपूर्वकरण मूल ७
उत्तर ५८, ५६, २६ प्रथम भाग में ५८ कर्मप्रकृतियों का बंध सम्भव है। नोट--
१. इस गुणस्थान में देवायु के बंध का प्रारम्भ व समाप्ति नहीं होती। २. प्रथम भाग के अंत में निद्रा, प्रचला का विच्छेद हो जाता है अतः ५८--२=५६ ३. दूसरे भाग से छटे भाग तक यही ५६ का बंध सम्भव है । छठे भाग के अंत में सुर
द्विक (देवगति, देवानुपूर्वी), पंचेन्द्रियजाति, शुभविहायोगति, त्रसनवक (त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय), औदारिक शरीर को छोड़ शेष चार शरीर, औदारिक अंगोपांग को छोड़ शेष दो अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, निर्माण, तीर्थंकर, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघुचतुष्क (अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास), इन ३० प्रकृतियों
का बंधविच्छेद होता है। सातवें भाग में ये नहीं रहतीं=२६ ४. आठवें गुणस्थान के सातवें भाग के अंत में हास्य, रति, जुगुप्सा, भय इन ४ प्रकृतियों
का विच्छेद हो जाने से २६-४=२२ प्रकृतियों का बंध नौवें गुणस्थान में संभव है। (९) अनिवृत्तिबावर ० मूल ७
... उत्तर २२, २१, २०, १९, १८ इस गुणस्थान के प्रारम्भ में २२ प्रकृतियों का बंध, १. पहले भाग के अंत में पुरुषवेद का विच्छेद-२१, २. दूसरे भाग के अंत में संज्वलनक्रोध का विच्छेद =२०, ३. तीसरे भाग के अंत में संज्वलनमान का विच्छेद =१९, ४. चौथे भाग के अंत में संज्वलनमाया का विच्छेद =१८, ५. पांचवें भाग के अंत समय में लोभ का बंध नहीं होता । अतः दसवें गुणस्थान के प्रथम
समय में शेष १७ प्रकृतियां रहेगी।
(१०) सूक्ष्मसंपराय मूल ६
उत्तर १७ दसवें गुणस्थान के अंत समय मेंदर्शनावरणीय ४ उच्चगोत्र १ .. .
. ज्ञानावरणीय अंतराय
यशःकीर्तिनाम १=१६ प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाता है, शेष १ प्रकृति रहती है। (११) उपशांतमोहनीय मूल १ सातावेदनीय का बंध होता है।
. .. ..... (स्थिति इसकी दो समय मात्र की होती है। योग निमित्त है।)