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कर्मप्रकृति
(२) सास्वादन
उत्तर १०१ नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु), जातिचतुष्क (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय), स्थावरचतुष्क (स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणनाम) हुंड. संस्थान, सेवार्तसंहनन, आपतनाम, नपुसंकवेद, मिथ्यात्व मोहनीय =१६ प्रकृतियों का बंधविच्छेद मिथ्यात्व गुणस्थान के अंत में हो जाने से शेष १०१ का बंध सम्भव है।
मूल ८
घटा देने से २७ प्रकृतियां कम ।
(३) मिश्र गुण
. . उत्तर ७४ तिर्यंचत्रिक (तिर्यंचगति, तिथंचानुपूर्वी, तिर्यंचायु), स्त्यानद्धित्रिक (निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानद्धि), दुर्भगत्रिक (दुर्भगनाम, दुःस्वरनाम, अनादेयनाम), अनन्तानुबंधीचतुष्क (अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ), मध्यम संस्थानचतुष्क (न्यग्रोधपरिमंडल, वामन, सादि, कुब्ज), मध्यम संहननचतुष्क (ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका), नीचगोत्र, उद्योतनाम, अशुभ विहायोगति, स्त्रीवेद=२५ का बंध दूसरे गुणस्थान तक होने व मिश्र गुणस्थान में किसी आयु का बंध सम्भव न होने से शेष दो आयु (मनुष्यायु, देवायु) को
घटा देने से २७ प्रकृतियां कम होती हैं। (४) अवि. सम्यग्दृष्टि मूल ८
उत्तर ७७ मनुष्यायु, देवायु व तीर्थकरनाम का बंध होने से मिश्र गुणस्थान की ७४ प्रकृतियों में यह तीन जोड़ें =७७। नोट-नरक व देव जो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती हैं, वे तो मनुष्यायु का और तिर्यंच व
मनुष्य, देवायु का बंध करते हैं। (५) देशविरत ___मूल ८
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उत्तर ६७ वज्रऋषभनाराचसंहनन, मनुष्यत्रिक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु), अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क ( अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ ), औदारिकद्विक ( औदारिकशरीर, औदारिक-अंगोपांग ), कुल १० प्रकृतियों का विच्छेद चतुर्थ गुणस्थान के
अंत समय में होने से शेष ६७ का बंध सम्भव है। (६) प्रमत्तविरत मूल ८
उत्तर ६३ प्रत्याख्यानावरणचतुष्क (प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ ) का बंधविच्छेद
पांचवें गुणस्थान के अंत समय में हो जाने से-६७-४=६३ प्रकृतियों का बंध सम्भव है । (७) अप्रमत्तविरत मूल ८/७
- उत्तर ५९/५८ छठे गुणस्थान के अंत में अरति, शोक, अस्थिरनाम, अशभनाम, अयश:कीर्तिनाम, ___ असातावेदनीय, इन छह प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाने से शेष रही ५६ । (जो जीव
छठे गुणस्थान में देवायु का बंध प्रारम्भ कर उस बंध को वहीं समाप्त कर सातवें गुणस्थान को प्राप्त करता है, उसके ५६ प्रकृतियों व जो छठे गुणस्थान में देवायु का बंध कर सातवें में समाप्त करता है, उसके ५६ -१=५७ प्रकृतियों का बंध रहता है तथा सातवें गुणस्थान में आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग का बंध सम्भव होने से दो जोड़ने पर ५६+२=५८/५७+२=५९ प्रकृतियों का बंध सम्भव है।