Book Title: Karm Prakruti Part 01
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 267
________________ २१४ कर्मप्रकृति रति के दो भेद किये जा सकते हैं- १. अधोमुखीरति, जिसमें पुत्र, स्त्री, परिजन, सम्पत्ति आदि के प्रति आसक्ति रूप रति रहती है। यह आत्मा को अधोगति में ले जाने वाली है और २. ऊर्ध्वमुखीरति, जो आध्यात्मिक धरातल पर गुरुजनों के साथ प्रशस्तराग रूप रति है, वह प्रशस्त कहलाती है और पुण्य बंध का कारण भी बनती है। जैसे कि वैमानिक देवायु के बंध के लिये बताया है:-. .. सरागसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपासि देवस्य।... --तत्त्वार्थसूत्र ६/२० - पुरुषवेद ये आपेक्षिक दृष्टि से मोह की हलकी अवस्था है। शास्त्रकारों ने वेद की दृष्टि से पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद को क्रमशः तृणाग्नि, करीषाग्नि, दवदाह--यह तीन प्रकार की उपमा देकर ध्वनित किया है कि तृणाग्नि के तुल्य रूप की प्रधानता से पुरुषवेद का प्रसंग आता है और ये पुरुषवेद मोह की स्वल्पता की अवस्था में माना गया है। तीन मोह की अपेक्षा मन्द मोह की स्थिति में शुभ परिणाम का भाव भी आ सकता है और शुभ परिणाम पुण्य के हेतु हैं शुभः पुण्यस्य। -तत्त्वार्थसूत्र ६/३ इसका बंध नौवें गुणस्थान तक चलता है। जबकि स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का आदि के दो गुणस्थानों तक बंध होता है। इसके अतिरिक्त एक कारण ये भी रहा हुआ कि ठाणांग सूत्र के १०वें ठाणे में "पुरुषाजेष्ठ" यह पद आत्मा के साथ संयुक्त हुआ है। जिसका अर्थ यह है कि पुरुष ज्येष्ठ, बड़ा माना गया है। इससे यह फलित होता है कि मोह का जितना हलकापन होगा, उतना ही ऊर्ध्वगमन बनेगा। इसलिये वह भी पुण्य का हेतु सिद्ध होता है। .: विशुद्ध अध्यवसाय और मोह की अल्पता के कारण अनिवृत्तिबादरगुणस्थान में पुरुषवेद में एकस्थानक तक - रसबंध भी संभव है। पहा . इस दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में इन चार प्रकृतियों को पूर्वाचार्यों ने पुण्यप्रकृति के रूप में गिनाया है, यह संभव लगता है। विद्वज्जन चिन्तन की गहन दृष्टि से चिन्तन करें, यह अपेक्षा है। ७. कर्मों के रसविपाक का स्पष्टीकरण बंध को प्राप्त कर्मपुद्गलों में फल देने की शक्ति को रस. कहते हैं। अतः रस (फलदान शक्ति) की दृष्टि से कर्मों के विपाक (उदय) का विचार करने अर्थात् कर्मप्रकृतियों की फलदान शक्ति की योग्यता, क्षमता बतलाने - को रसविपाक कहते हैं। आशय यह है कि जीव के साथ बंधन से पूर्व कर्म परमाणुओं में किसी प्रकार का विशिष्ट रस नहीं रहता है, उस समय वे नीरस और एक रूप (कार्मणवर्गणा रूप) रहते हैं। किन्तु जब वे जीव के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, तब ग्रहण करने के समय में ही जीव के कषाय रूप परिणामों का निमित्त . पाकर उनमें अनन्तगुण रस पड़ जाता है । जो जीव के गुणों का घात करता है। जैसे सूखी घास नीरस होती . है, किन्तु ऊंटनी, भैस, गाय और बकरी के पेट में जाकर वह दूध आदि रस में परिणत होती है तथा उनके रसों में चिकनाई की हीनाधिकता देखी जाती है। अर्थात् उस सूखी घास को खाकर ऊंटनी खूब गाढ़ा दूध देती है और .. उसमें चिकनाई बहुत अधिक रहती है। भैंस के दूध में उससे कम गाढ़ापन और चिकनाई रहती है। गाय के दूध में उससे भी कम गाढ़ापन और चिकनाई होती है। इस प्रकार जैसे एक ही प्रकार की घास आदि भिन्न-भिन्न पशुओं के पेट में जाकर भिन्न-भिन्न रस रूप परिणत होती है, उसी प्रकार एक ही प्रकार के कर्मपरमाणु भिन्नभिन्न जीवों के भिन्न-भिन्न रस वाले हो जाते हैं और उदय काल में अपने फल का वेदन कराते हैं।

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