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परिशिष्ट
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प्रत्येक नामकर्म का उदय होने से अलग-अलग शरीर होते हैं। लेकिन वनस्पतिकायिक जीवों में प्रत्येक और साधारण नामकर्म दोनों का उदय पाया जाता है। अर्थात् वनस्पतिकायिक जीव साधारण और प्रत्येक शरीरधारी दोनों प्रकार के होते हैं। प्रत्येकशरीरधारी वनस्पति बादर होती है।
प्रत्येक और साधारण वनस्पतियों की पहिचान के कुछ उपाय ये हैं
जिन वनस्पतियों की शिरा, संधि, पर्व अप्रकट हो, मूल, कन्द, त्वचा, नवीन कोपल, टहनी, पत्र, फूल तथा बीजों को तोड़ने से समान भंग हो जाते हों और कंद, मूल, टहनी या स्कन्ध की छाल मोटी हो, उसको साधारण और इससे विपरीत को प्रत्येक वनस्पति जानना चाहिये ।
किसी वृक्ष की जड़ साधारण होती है, किसी का स्कन्ध साधारण होता है, किसी के पत्ते साधारण होते हैं, किसी के पर्व (गांठ) का दूध अथवा किसी के फल साधारण होते हैं। इनमें से किसी के तो मूल, पत्ते, स्कन्ध, फल, फूल आदि अलग-अलग साधारण होते हैं और किसी के मिले हुए पूर्ण रूप से साधारण होते हैं। मूली, अदरक, आलू, अरबी, रतालू, जमीकन्द साधारण हैं ।
६. सम्यक्त्व, हास्य, रति, पुरुषवेद को शुभप्रकृति मानने का अभिमत
इन चारों प्रकृतियों को शुभ मानने के बारे में यह आशय माना जा सकता है कि ये चारों प्रकृतियां पुण्यबंध की हेतुभूत भी हैं। अतः कारण में कार्य का उपचार करके इन चारों को पुण्यप्रकृति के नाम से सम्बोधित किया गया है, यह भी संगत लगता है।
यद्यपि सम्यक्त्वमोहनीय मोहकर्म की प्रकृति है। लेकिन ये प्रकृति नम्बर वाले चश्मे की तरह है। सम्यक्त्व श्रद्धान में बाधक नहीं है, बल्कि साधक है । यद्यपि नम्बर वाला चश्मा भी आवारक है, किन्तु अन्य आवारक तत्त्वों की तरह आवारक नहीं है, बल्कि ये नेत्र की रोशनी को प्रोज्ज्वलित करने में निमित्तभूत भी बनता इसी प्रकार की स्थिति सम्यक्त्वमोहनीयकर्म की मानी जा सकती है । हाँ, क्षायिक सम्यक्त्व और औपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा भले ही आवारक माना जाये, परन्तु क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की दृष्टि में सहायक है और आत्मा को ऊर्ध्वमुखी करने में बहुत दूर तक इसका योगदान रहा हुआ है।
इसकी ( क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की उपलब्धि होने पर वीतराग देव प्ररूपित तत्वों की जानकारी से मनुष्य स्वाभाविक रूप से सात्विक हास्य को प्राप्त होता है । अंधकार में भटकते हुए मनुष्य को प्रकाश मिलने पर हर्ष की भी प्राप्ति होती है । यह हर्ष मोह का भेद होते हुए भी बाधक नहीं होता है और पुण्य का हेतु भी बनता है ।
जब व्यक्ति को सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की श्रद्धा क्षायोपशमिक सम्यक्त्वभाव से उपलब्ध होती है, उसी समय देव, गुरु, धर्म के प्रति आत्मा में अनुरक्ति पैदा होती है यह अनुरक्ति भी प्रशस्त रति का रूप कहा जा सकता है। प्रशस्त राग से आत्मा को वीतराग देव के मार्ग पर अनुगमन करने का उत्साह उत्पन्न होता है। परिणामस्वरूप देशव्रतों, महाव्रतों को अंगीकार करता हुआ ऊपर के गुणस्थानों में आरोहण करता है। संज्वलनचतुष्क कषाय छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक रही हुई अवश्य है, परन्तु इस कषाय की उपस्थिति अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में आत्मा को बढ़ने में किसी प्रकार की बाधा पैदा नहीं करती है। बल्कि अष्टम गुणस्थान में उपशम, क्षपक श्रेणि की गति से नवम् एवं दशम् गुणस्थान तक आत्मा पहुँच जाती है। वैसे ही प्रशस्त राग यानि सुदेव, सुगुरु, सुधर्म के प्रति जो राग है वह आत्मा को पवित्रता की ओर मोड़ने वाला है। इसीलिए श्रावकों के कई विशेषणों का उल्लेख करते हुए भगवती सूत्र में एक विशेषण ये भी आया है-अट्ठिमिज्जापेमाणुरागरता- ( उनकी हड्डियां और मज्जा धर्मप्रेमराग से अनुरक्त थीं) । यही प्रशस्त रति की स्थिति है।