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वह क्षीण नहीं होती हैं कि अन्तराल में पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियों का क्षपण किया जाता है। उनके क्षय के पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषायों का भी अन्तर्मुहूर्त में ही क्षय कर दिया जाता है।
उसके पश्चात् नव नोकषायों और चार संज्वलन कषायों में अन्तरकरण करता है। फिर क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और हास्यादि छह नोकषायों का क्षपण करता है । उसके बाद पुरुषवेद के तीन खंड करके दो खंडों का एक साथ क्षपण करता है और तीसरे खंड को संज्वलन क्रोध में मिला देता है । यह क्रम पुरुषवेद के उदय से श्रेणि चढ़ने वाले के लिये है । यदि स्त्री श्रेणि आरोहण करती है तो पहले नपुंसकवेद का क्षपण करती है। उसके बाद क्रमशः पुरुषवेद, छह नोकषाय और स्त्रीवेद का क्षपण करती है और यदि कृतनपुंसक श्रेणि आरोहण करता है तो उसके बाद क्रमश: पुरुषवेद, छह नोकषाय और नपुंसकवेद का क्षपण अन्त में होता है। वेद का क्षपण होने के बाद संज्वलनचतुष्क का उक्त प्रकार से क्षपण करता है।
उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि अबद्धायष्क क्षपक अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यावरण कषायों का क्षय होते ही संज्वलनकषायचतुष्क का क्षय प्रारम्भ करने के पूर्व वेदत्रिक और हास्यादि छह नोकषायों का क्षपण करता है । नोकषायों की सत्ता तभी तक रहती है, जब तक आदि की बारह कषायें क्षय नहीं होती हैं। इसीलिये नव नोकषायों का साहचर्य आदि की बारह कषायों के साथ बतलाया है। २. संहनन के दर्शक चित्र
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