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परिशिष्ट १. नोकषायों में कषायसहचारिता का कारण . सामान्यापेक्षा हास्यादि नव नोकषायें अनन्तानुबंधीक्रोधादि संज्वलनलोभ पर्यन्त सोलह कषायों की मुख्यगौण भाव से सहायक अर्थात् उत्तेजक (उद्दीपक) होने से कषाय कहलाती हैं । क्योंकि सामान्यरूप से छठे गुणस्थान से लेकर नौवें गुणस्थान तक संज्वलनकषायचतुष्क के उदय की मुख्यता रहती है । अतः उस अवस्था में भी उन गुणस्थानों तक नोकषायमोहनीय संज्वलनचतुष्क को भी कुछ उत्तेजना देने वाली बन सकती है। इस दृष्टिभेदापेक्षा सामान्यरूप से सभी कषायों के साथ रहने वाली और उनको प्रेरणा देने वाली होने से इन नोकषायों में कषायरूपता कही गई है। नोकषायों को कषायरूप प्राप्त करने में कषायों का सहकार आवश्यक है और उनके संसर्ग से ही नोकषायों की अभिव्यक्ति होती है। वैसे वे निष्क्रिय-सी हैं । केवल नोकषाय प्रधान नहीं हैं।
नोकषायों में कषाय व्यपदेश करने की उक्त सामान्य दृष्टि समझ लेने के बाद अब विशेषापेक्षा उनको अनन्तानबंधी क्रोध आदि बारह कषायों के साथ सहचारी मानने के कारण को स्पष्ट करते हैं।
विशेषापेक्षा नव नोकषायों का अनन्तानबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) रूप बारह कषायों के साथ साहचर्य मानने का कारण यह है कि चौथे, पांचवें, छठे अथवा सातवें गुणस्थानवर्ती जो मनुष्य आगे चलकर क्षपकश्रेणि आरंभ करने की स्थिति में होते हैं, वे सबसे पहले क्षपकश्रेणि की तैयारी के लिये अनन्तानबंधीचतुष्क का एक साथ क्षय करते हैं और उसके शेष अनन्तवें भाग को मिथ्यात्व में स्थापन करके मिथ्यात्व और उस शेष अंश का एक साथ नाश करते हैं। उसके बाद इसी प्रकार क्रमश: सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति का क्षय करते हैं। जब सम्यगमिथ्यात्व की स्थिति एक आवलिका मात्र बाकी रह जाती है, तब सम्यक्त्व मोहनीय की स्थिति आठ वर्ष प्रमाण बाकी रहती है। उसके अन्तर्महर्त प्रमाण खंड कर-करके खपाते हैं । जब उसके अंतिम स्थितिखंड को 'खपाते हैं, तब उस क्षपक को कृतकरण कहते हैं। इस कृतकरण काल में यदि कोई जीव मरता है तो वह चारों गतियों में से किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता है। यदि क्षपकश्रेणि का प्रारम्भक बद्धाय जीव है तो अनन्तानबंधी के क्षय के पश्चात उसका मरण होना संभव है । उस अवस्था में मिथ्यात्व का उदय होने पर वह जीव पुनः अनन्तानुबंधी का बंध करता है। क्योंकि मिथ्यात्व के उदय में अनन्तानुबंधी नियम से बंधती है । किन्तु मिथ्यात्व का क्षय हो जाने पर पुनः अनन्तानुबंधी के बंध का भय नहीं रहता है। बद्धायु होने पर भी यदि कोई जीव उस समय मरण नहीं करता तो अनन्तानुबंधी कषाय और दर्शनमोह का क्षय करने के बाद वहीं ठहर जाता है । चारित्रमोह के क्षपण का प्रयत्न नहीं करता है।
यह बात तो हुई बद्धायु क्षपकश्रेणि के प्रारम्भक की। किन्तु यदि अबद्धायु होता है तो वह उस श्रेणि को समाप्त करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है। यह अबद्धायु मनुष्य चौथे आदि चार गुणस्थानों में से किसी एक में अनन्तानुबंधीचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक का क्षय कर देता है और उसके बाद चारित्रमोहनीय के क्षय के लिये यथाप्रवृत्त आदि तीनों करणों को करता है।
___ अपूर्वकरण के प्रसंग में स्थितिघात वगैरह के द्वारा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय की आठ प्रकृतियों का इस तरह क्षय किया जाता है कि अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में उनकी स्थिति पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र रह जाती है । अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग बीत जाने पर स्त्यानद्धित्रिक, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप, उद्योत, इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति उदवलना संक्रमण के द्वारा उदवलना होने पर पल्य के असंख्यातवें भाम मात्र रह जाती है। उसके बाद गणसंक्रमण के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों में उनका प्रक्षेप कर-करके उन्हें बिल्कुल क्षीण कर दिया जाता है। यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षय का प्रारम्भ पहले ही कर दिया जाता है, किन्तु अभी तक