________________
१६२
क्रम जीवभेद
१. सूक्ष्म अपर्याप्त
२. बादर अपर्याप्त
३. सूक्ष्म पर्याप्त
४. बादर पर्याप्त
५. द्वीन्द्रिय अपर्याप्त
६.
पर्याप्त
७. त्रीन्द्रिय अपर्याप्त
८...
पर्याप्त.
९. चतुरि. अपर्याप्त
१०.
पर्याप्त
११. असंज्ञी पंचे. अपर्याप्त
"
31
11
१२.
पर्याप्त
१३. संज्ञी पंचे. अपर्याप्त
१४.
पर्याप्त
11
17
स्थितिस्थान
पत्यापन के असंख्यातवें भाग प्रमाण सर्वस्तोकः
उससे संख्यात गुग
उससे संख्यात गुण
उससे संख्यात गुण
उससे असंख्यात गुण
उससे संख्यात गुण
उससे
उससे
उससे
उससे
उससे
उससे
उससे
उससे:
प्रकृतियों को उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति
33
31
27
77
"
संक्लेशस्थान
सबसे अल्प
असंख्यात गुण
एमेव विसोहीओ विग्घावरणेसु कोडिकोडीओ | उदही तीसमसाते अद्धं थीमणुयदुगसाए || ७०।।
विशुद्धिस्थान
सबसे अल्प
असंख्यात गुण
11
"
33
ܕܙ
कर्मप्रकृति
11
31
11
शब्दार्थ -- एमेव - इसी तरह, विसोहीओ - विशुद्धिस्थान, विग्धावरणेसु - अन्तराय और आवरणद्विक की, कोडिकोडीओ - कोडाकोडी, उदही-सागरोपम, तीस-तीस, असाते - असातावेदनीय की, अर्द्ध- अर्ध, श्रीमदुगसाए - स्त्रीवेद, मनुष्यद्विक और सातावेदनीय की ।
गाथार्थ -- विशुद्धिस्थान भी इसी प्रकार जानना चाहिये । अन्तराय, आवरणद्विक तथा असातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम है तथा स्त्रीवेद, मनुष्यद्विक और सातावेदनीय की आधी अर्थात् पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है ।
विशेषार्थ - - ' एमेव विसोहीओ त्ति अर्थात् जैसे संक्लेशस्थान असंख्यात गुणित क्रम से पहले कहे जा चुके हैं, उसी प्रकार असंख्यात गुणित रूप से विशुद्धिस्थान भी कहना चाहिये । क्योंकि संक्लेश को प्राप्त होने वाले जीव के जो संक्लेशस्थान हैं, वे ही विशुद्धि को प्राप्त होने वाले जीव के विशुद्धिस्थान होते हैं । इसके लिये पूर्व में विस्तार से कहा जा चुका है, इसलिये यहाँ