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मंधनकरण
१८१ . २. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय के स्थितिबंध में जो संख्या की अधिकता वतलाई है, वह एकेन्द्रिय के उत्कृष्ट स्थितिबंध में क्रमशः पच्चीस, पचास, सौ और हजार से गुणा करने पर प्राप्त राशि जानना चाहिये।
३. यहाँ संयत का उत्कृष्ट स्थितिबंध बताया है और जघन्य स्थितिबंध सूक्ष्मसंपराय यति जितना जानना चाहिये।
४. 'संयत' से संज्ञी पंचेन्द्रिय के स्थितिबंध का क्रम प्रारम्भ होता है । संयम और देशविरति पर्याप्त अवस्था में धारण कर सकते हैं। अतः उनमें पर्याप्त-अपर्याप्त का विकल्प नहीं है।
५. गाथा में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध ओघवत् कहा है। लेकिन यहाँ सरलता से समझने के लिये पृथक्-पृथक् स्पष्ट कर दिया है। निषेकप्ररूपणा
- इस प्रकार स्थितिबंधप्ररूपणा की गई । अब क्रमप्राप्त निषेकप्ररूपणा का विचार करते हैं। उसमें दो अनुयोगद्वार हैं--अनन्तरोपनिधा और परंपरोपनिधा । इनमें से पहले अनन्तरोपनिधा की प्ररूपणा करते हैं---
मोतूण सगमबाहे, पढमाए ठिइए बहुतरं दव्वं ।
एत्तो विसेसहीणं, जावुक्कोसं ति सवेसि ॥३॥ । ..शब्दार्थ-मोतूण-छोड़कर, सगमबाहे-अपनी अबाधा, पढमाए ठिइए-प्रथमः स्थिति में,
बहुतरं-अधिक, दव्वं-द्रव्य, एत्तो-इससे आगे, विसेसहीणं-विशेष हीन-हीन, जावुक्कोसं ति-उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त, सर्वेसि-सब प्रकृतियों में।
गाथार्थ--जीव सब प्रकृतियों में उनकी अबाधा को छोड़कर प्रथम स्थिति में बहुत द्रव्य देता है, इससे आगे के स्थितिस्थानों में विशेष हीन-हीन उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त जानना चाहिये।
विशेषार्थ-सभी बध्यमान कर्मों में अपनी-अपनी अबाधाकाल को छोड़कर उससे ऊपर दलिकनिक्षेप (निषेकरचना) करता है। उसमें से एक समय लक्षण वाली प्रथम स्थिति में बहुत अधिक कर्मदलिक का निक्षेप करता है और ‘एत्तो विसेसहीणं ति' अर्थात् इस प्रथम स्थिति से ऊपर द्वितीय आदि एक-एक समय प्रमाण वाली स्थितियों में विशेषहीन-विशेषहीन कर्मदलिक का निक्षेप करता है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--
. प्रथम स्थिति से द्वितीय स्थिति में विशेषहीन कर्मदलिकों का प्रक्षेप करता है, उससे भी तृतीय स्थिति में विशेषहीन प्रक्षेप करता है, उससे भी चतुर्थ स्थिति में विशेषहीन प्रक्षेप करता है।