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बंधनकरण
नाम, गोत्र कर्मों के स्थितिबंधाध्यवसायस्थानों से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय कर्मों के स्थितिबंधाध्यवसायस्थान असंख्यात गणित होते हैं। यह कैसे होते हैं ? तो इसका उत्तर
न कर्मों में पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियों के उल्लंघन करने पर द्विगणवृद्धि पाई जाती है और ऐसा होने पर एक-एक पल्योपम के अंत में असंख्यात गणित स्थितिबंधाध्यवसाय क्यों नहीं पाये जायेंगे? फिर तो दस कोडाकोडी सागरोपम की क्या बात ? अर्थात् अवश्य पाये जायेंगे।' उक्त ज्ञानावरण आदि कर्मों के स्थितिबंधाध्यवसायस्थानों से कषायमोहनीय के स्थितिबंधाध्यवसायस्थान असंख्यात गुणित होते हैं। उनसे भी दर्शनमोहनीय के स्थितिबंधाध्यवसायस्थान असंख्यात गुणित होते हैं।
इस प्रकार प्रकृतिसमुदाहार का कथन जानना चाहिये। अब स्थितिसमुदाहार में जो पहले तीव्रमंदता नहीं कही गई थी, उसका कथन करते हैं--
'अणंतेत्यादि' अर्थात् प्रथम स्थिति में जो जघन्य स्थितिबंधाध्यवसायस्थान होता है, उससे उसी स्थिति में जो उत्कृष्ट स्थितिबंधाध्यवसायस्थान है, वह अनन्त गुणित अनुभाग वाला होता है, उससे द्वितीय स्थिति में जघन्य स्थितिबंधाध्यवसायस्थान अनन्त गुणा होता है। इस प्रकार चरम अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति में चरम स्थितिबंधाध्यवसायस्थान उक्त क्रम से अनन्त गुणा कहना चाहिये। जैसे ज्ञानावरण कर्म की जघन्य स्थिति में जो जघन्य स्थितिबंधाध्यवसायस्थान है, वह सबसे मन्द अनुभाग वाला होता है, उससे उसी जघन्य स्थिति का उत्कृष्ट अध्यवसायस्थान अनन्तगुणा होता है। उससे भी द्वितीय स्थिति में जघन्य स्थितिबंधाध्यवसायस्थान अनन्तगुणा होता है, उससे भी उसी द्वितीय स्थिति में उत्कृष्ट अध्यवसायस्थान अनन्तगुणा होता है। इस प्रकार प्रत्येक स्थिति में जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंधाध्यवसायस्थान अनन्तगुणित रूप से तव तक कहना चाहिये, जब तक कि उत्कृष्ट स्थिति में चरम स्थितिबंधाध्यवसायस्थान अनन्तगुणा प्राप्त होता है।
___ इस प्रकार स्थितिसमुदाहार और प्रकृतिसमुदाहार का पूर्ण रूप से कथन किया गया। अब जीवसमुदाहार का कथन करते हैं । जीवसमुदाहार
बंधती धुवपगडी, परित्तमाणिगसुभाण तिविहरसं।
चउ तिग बिट्ठाण गर्य, विवरीतिगं च असुभाणं ।।९०॥ शब्दार्थ-बंधती-बांधते हुए, धुवपगडी-ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों, परित्तमाणिग-परावर्तमान, सुभाण-शुभ प्रकृतियों का, तिविहरसं, त्रिविध रस, चउतिगबिट्ठाणगयं-चतुः-त्रि- द्विस्थानिक, विवरीयतिगं-विपरीत क्रम से त्रिक, च-और, असुभाणं-अशुभ प्रकृतियों का। . ... १. नाम और गोत्र की उत्कृष्ट स्थिति २० कोडाकोडी सागरोपम और ज्ञानावरणादि चार कर्मों की ३०
कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, इस प्रकार नाम, गोत्र से ज्ञानावरणादि की स्थिति १० कोडाकोडी सागर अधिक है । अत: उस अधिक स्थिति के कारण नाम, गोत्र से पानावरणादि पार कर्मों के अध्यवसायों का असंख्यातगुणत्व होना स्वाभाविक ही है। . .
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