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कर्मप्रकृति
: गाथार्थ--ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों को बांधते हुए परावर्तमान शुभ प्रकृतियों का चतुःस्थानिक, विस्थानिक और द्विस्थानिक रस बांधता है और अशुभ प्रकृतियों का विपरीत क्रम से त्रिक अर्थात् द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक रस बांधता है।
- विशेषार्थ--ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, अन्तरायपंचक इन सैंतालीस (४७) ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों को वांधते हुए जीव सातावेदनीय, देवगति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रिय, आहारक, औदारिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, अंगोपांगत्रिक, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, सदशक, तीर्थकर, नरकायु को छोड़कर शेष आयुत्रिक, उच्चगोत्र रूप चौंतीस परावर्तमान शुभ प्रकृतियों का तीन प्रकार का, यथा चतुःस्थानगत, त्रिस्थानगत और द्विस्थानगत रस-अनुभाग बांधते हैं। यहाँ शुभ प्रकृतियों का रस क्षीर आदि के रस के समान और अशुभ प्रकृतियों का रस घोषातिकी, नीम आदि के रस के समान जानना चाहिये। जैसा कि कहा है-घोसाडइनिंबुवमो असुभाण सुभाण खीरखंडुवमो । ... . क्षीर आदि का जो स्वाभाविक रस है, वह एकस्थानिक रस कहलाता है। दो कर्ष प्रमाण रसों को औटाने पर जो एक कर्ष प्रमाण रस अवशिष्ट रहता है, वह द्विस्थानिक रस कहलाता है । तीन कर्ष प्रमाण रसों को औटाने पर जो एक कर्ष प्रमाण रस शेष रहता है, वह त्रिस्थानिक रस है और चार कर्ष प्रमाण रसों के औटाने पर जो एक कर्ष प्रमाण रस शेष रहता है, वह चतुःस्थानिक रस कहलाता है। एकस्थानगत रस भी जलकण, बिन्दु, चुल्ल, प्रसृति, अंजलि, करक, कुंभ, द्रोण आदि प्रमाण जल के प्रक्षेपण करने से मंद, मंदतर आदि असंख्य भेद रूप हो जाता है। इसी प्रकार द्विस्थानगत आदि रसों में भी असंख्य भेदरूपता कहनी चाहिये । इसी के अनुसार कर्मों के रसों में भी एकस्थानगत. द्विस्थानगत आदि रसों की तीव्रता-मंदता अपनी बद्धि से जान लेना चाहिये। एकस्थानगत रस से कर्मों के द्विस्थानगत आदि रस यथोत्तर अनन्तगुण, अनन्तगुण कहना चाहिये । जैसा कि कहा है-'अणंतगुणिया कमेणियरे'-एकस्थानिक से द्विस्थानिक आदि रस क्रम से अनन्तगुणित स वाले होते हैं।'
केवलज्ञानावरण को छोड़कर चारों ज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण के अतिरिक्त शेष चक्षुआदि तीन दर्शनावरण, पुरुषवेद, संज्वलनचतुष्क, अन्तरायपंचक, इन सत्रह (१७) प्रकृतियों का चारों ही प्रकार का रसबंध संभव है। अर्थात् इन सत्रह प्रकृतियों का रस एकस्थानगत भी होता हैं, द्विस्थानगत भी होता है, त्रिस्थानगत भी होता है और चतुःस्थानगत भी होता है। इन सत्रह 'प्रकृतियों से शेष' रही सभी शुभ और अशुभ प्रकृतियों का रस द्विस्थानगत, त्रिस्थानगत और
चतुःस्थानगत होता है। किन्तु कदाचित् भी एकस्थानगत नहीं होता है, यह वस्तुस्थिति है। .. . शुभ प्रकृतियों के चतु:स्थानगत आदि के क्रम से रस की विविधता का प्रतिपादन कर अब अशुभ
प्रकृतियों की विविधता को कहते हैं-'विवरीयतिगं च असुभाणं' अर्थात् उन्हीं ध्रुवप्रकृतियों (अर्थात् १. यह अनन्तगणरूपता रस के समदाय की अपेक्षा समझना चाहिये, किन्तु अनन्तरोपनिधा परिपाटी से नहीं ।